स्थूलभद्र ने महाराजा के चरणों में प्रणाम किया। राजा ने उसे सप्रेम आशीष दी।
राजा ने पूछा, ‘ क्या तुम ही स्थूलभद्र हो ? ‘
‘ जी! महाराजा! ‘
स्थूलभद्र ! तुम्हारे पिता के वियोग में रिक्त बने मंत्री पद को ग्रहण करने के लिए मेरा तुम्हे आमंत्रण है। ‘
‘ राजन्! कुछ सोच विचार कर इस सम्बन्ध में अपना निर्णय प्रस्तुत करना चाहता हूँ।
‘तुम्हारा निर्णय आज ही हो जाय तो ठीक रहेगा।’ राजा ने कहा।
‘जी! महाराजा!’ इतना कहकर स्थूलभद्र पास ही अशोक वाटिका में चले गये और सोचने लगे, ‘ अहो! इस मंत्री पद में तो कितनी अधिक पराधीनताये है? वह न तो सुखपुर्वक खा पी सकता है और न ही संसार के भोग सुखों का अनुभव कर सकता है। इस मंत्री पद पर आसीन व्यक्ति पर राज्य के कार्य का सार भार लगा रहता है……….और यदि राजा की आज्ञा विरुद्ध कुछ भी प्रव्रत्ति हो जाय तो अकाल मृत्यु भी हो सकती है।
ठीक ही कहा है; ‘ जो दरिद्री है, रोगी है, मुर्ख है, प्रवासी है और किसी की सेवा में नित्य उपस्थित है, ये पांच जीवित होते हुए भी मरे हुए के सामान ही है।’
संसार की उपाधियों का विचार करते करते अचानक पूर्वभव के शुभ कर्म के उदय से स्थूलभद्र के दिमाग में बिजली की भांति एक शुभविचार उत्पन्न हुआ और वे सोचने लगे , अहो ! वे बुद्धिमान पुरुष धन्यवाद के पात्र है; जो भोग सुखों का परित्याग कर संयम धर्म का स्वीकार करते है और उत्कृष्ट संयम धर्म का पालन कर शाश्वत अजरामर मोक्षपद प्राप्त करते है।
इस प्रकार संसार की असारता , सयंम धर्म की उपादेयता और मोक्ष सुख की स्वाधीनता का विचार करते करते उनके दिमाग में इस असार संसार के प्रति तीव्र वैराग्य भाव पैदा हो गया।
अहो! स्थूलभद्र का यह केसा महान पुण्योदय! 12-12 साल से वेश्या के संग में आसक्त होने पर भी एक ही पल में संसार के समस्त भौतिक सुखों को तिलांजलि देने का केसा उत्तम विचार !
बस, चरित्र धर्म के प्रति उनके ह्रदय में तीव्र अनुराग पैदा हो गया । चरित्र के आगे उन्हें संसार के ऊंचे से ऊंचे पद भी निरस प्रतीत होने लगे………. और उसी समय एक क्षण का भी विलम्ब किए बिना उन्होंने अपने हाथों से केश लोंच प्रारंभ कर दिया । लोच करने के बाद रत्नकंबल का ही रजोहरण बनाकर साधुवेष का स्वीकार कर लिया।