“मां! तुझे पता नहीं है, मै चोदह विद्याओं में पारगामी बन कर आया हूं……. राजा और प्रजा सभी का सम्माननीय बना हूँ। क्या मेरी इस विद्या में अपूर्णता दिखाई दे रही है?”
“बेटा! मेरे दिल में मात्र इस जीवन की ही चिंता नहीं है। तू जानता है कि इस देह में रहा आत्मतत्व शाश्वत है। देहि (आत्मा) शाश्वत है। देह की चिंता/देह के सौंदर्य की चिंता के लिए यह जीवन नहीं है,……… इस जीवन की सार्थकता आत्मा की पूर्णता पाने में है।”
“बेटा! तू जिस विद्या को पढ़ कर आया है……. वह तो विनाशी तत्व की विद्या है। इस विद्या के अभ्यास से पद, प्रतिष्ठा और संपत्ति की प्राप्ति हो सकती है……. परंतु वह सब क्षणिक है। क्षणिक तत्व में आनंद पाना कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। तू जानता ही है कि इस दुनिया के भौतिक पदार्थों का सौंदर्य व अस्तित्व क्षणिक और विनाशी है।”
“बेटा! मेरे दिल में तेरे प्रति अपार स्नेह है…… मुझे आनंद होता है यदि तू शाश्वत तत्व की विद्या सीख कर आता। क्षणिक तत्व का आनंद विनाशी है…… शाश्वत तत्व का आनंद अविनाशी है।”
“यह जीवन अल्पकालीन है……… इस जीवन में यदि शाश्वत तत्व से अनुराग न जन्मे तो फिर किस जीवन में आत्म-तत्व की साधना कर पाएंगे? अतः बेटा! इस दुर्गति प्रद विद्या के अध्ययन से में कैसे प्रसन्न बनु?”
“मां! ओ मां! तेरे दिल में मेरे प्रति स्नेह है….. और मेरे दिल में तेरे प्रति भक्ति है….. मेरे लिए तो तू ही तीर्थ है……….तू ही सर्वस्व है….. तू जो आज्ञा करेगी, वह मुझे स्वीकार्य है, बोल! में कौनसा अध्ययन करूं तो तुझे प्रसन्नता होगी?…… मुझे तेरा आशीर्वाद प्राप्त होगा?”
“बेटा! तेरी इस समर्पण भावना से मुझे प्रसन्नता है। बेटा! तू यदि दृष्टिवाद का अध्ययन करें तो मुझे प्रसन्नता होगी।”
“मां के मुख से दृष्टिवाद का नाम सुनकर आर्यरक्षित प्रसन्न हो उठे। उन्होंने सोचा दृष्टिवाद नाम ही कितना सुंदर है! तो फिर उसके अध्ययन में कितना आनंद आएगा?”
“मां! प्यारी मां! मुझे बता…. यह दृष्टिवाद मुझे कौन पढ़ाएगा?”