थोड़ी ही देर बाद रुद्रसोमा की सामयिक पूर्ण हुई।सामयिक में वह मोन थी …….उसने अपने पुत्र आर्यरक्षित को कुछ भी नहीं कहा था क्योंकि वह जानती-समझती थी कि सामयिक में संसार संबंधी किसी भी प्रकार का चिंतन नहीं करना चाहिए। उस नियम के पालन में वह दृढ थी।
आर्यरक्षित भी जानता था कि मां सामायिक में है, अतः उसकी चरणरज का स्पर्श नहीं हो सकता है……. अतः वह भी मां के सामने मौन खड़ा था।
रुद्रसोमा ने सामयिक पूर्ण की और तत्क्षण आर्यरक्षित प्यारी मां के चरणों में गिर पड़ा। उसकी आंखों से आनंद के आंसू प्रवाहित होने लगे।
आरक्षित ने देखा- मां के चेहरे पर कोई प्रसन्नता सूचक चिन्ह नहीं है।
उसने पूछा- “मां! ओ मां! आज नगर के समस्त प्रजाजनों के दिल में आनंद की उर्मियाँ उछल रही है। सभी खुश है……. परंतु तेरी आंखों में विषाद क्यों?”
उसने सोचा- इतने शास्त्रों के अध्ययन के बाद भी यदि मैं अपनी मां को खुश नहीं कर सका……. तो मुझे धिक्कार है।
इतना सोच कर उसने कहा- ओ मां! तेरी अप्रसन्नता का कारण क्या है?
…… तेरे मुख पर बिषाद देखकर मेरा दिल कांप रहा है, माँ! जो भी कारण हो, मुझे कह, मैं तेरी मुख की विषाद अवस्था को देखने में असमर्थ हूं।
मां! मेरी जो भी गलती हो…… मुझे बता मैं तेरी आज्ञा शिरोधार्य करूँगा। दुनिया को प्रसन्न करके मुझे कोई आनंद नहीं है, ‘मैं तो तेरी प्रसन्नता चाहता हूं।’ बोलते-बोलते आर्यरक्षित का गला भर आया…….वह आगे कुछ बोल भी नहीं पाया। श्रमणोपासिक माँ रुद्रसोमा ने अपने पुत्र में मातृभक्ति का आदर्श देखा,….. शांति और गंभीर स्वर से अपनी वाचना प्रकट करते हुए वह बोली- “बेटा, मैं तेरी मां हूं….. इसीलिए अप्रसन्न हूं।”
मां के शब्द आर्यरक्षित ने सुने…… परंतु वह कुछ भी समझ नहीं पाया।
उसने कहा- “मां होकर अप्रसन्नता का कारण? मेरी समझ में नहीं आ रहा है।”
“बेटा! आर्यरक्षित! मेरे दिल में तेरे प्रति प्रेम है…….स्नेह है…..वात्सल्य है….। मेरे ह्रदय में तेरी हितचिंता का झरना बह रहा है…….मैं चाहती हूं, तू पूर्णता प्राप्त कर।”