आर्यरक्षित ने कहा तुम्हारे आगमन का कोई चिन्ह करते जाओ।
तब तत्क्षण इंद्र महाराजा ने उपाश्रय के दरवाजे की दिशा उल्टी कर दी। जो उपाश्रय पूर्व सन्मुख था, उसे पश्चिम सन्मुख कर दिया। इतना करके इंद्र महाराजा देवलोक में चले गए।
थोड़ी देर बाद जब शिष्य आए, तो उन्होंने उपाश्रय के मुख्य द्वार के स्थान पर दीवार देखी- सभी को आश्चर्य हुआ। आर्यरक्षित ने कहा, द्वार इधर है।
सभी शिष्य आवक रह गए……द्वार कैसे बदल गया?
तब आर्यरक्षित ने इंद्र के आगमन की सब बात कही……. सभी शिष्य को आश्चर्य हुआ।
जिन शासन की प्रभावना करते हुए आर्यरक्षित सुरिवर वृद्धा अवस्था को प्राप्त हो चुके थे। सुरिवर विहार करते हुए मथुरा पधारें। उस समय मथुरा में कीसी नास्तिक ने वाद के लिए ललकारा। गोष्ठामाहील ने उसके साथ वाद किया और उसे पराजित कर दिया।
सूरी जी ने सोचा, अब में वृद्ध हो चुका हूं, अतः गच्छ का भार योग्य शिष्य को सौप दु।
विचार करते हुए उन्होंने निर्णय लिया कि इस पद के लिए पुष्यमित्र सुयोग्य है, शिष्यो में से किसी ने फल्गुरक्षित और गोष्ठिमाहिल का नाम सूचित किया। उसी समय आचार्य भगवंत ने 3 घडे मंगवाए और उन्हें क्रमशः वाल, तेल और घी से भरवा दिए- फिर उन तीनों को खाली करवाया।
(1) वाल का घड़ा संपूर्ण खाली हो गया था।
(2) तेल के घड़े में थोड़ा सा तेल चिपका रहा।
(3) घी के घड़े में तेल से भी अधिक घी चिपका रहा।
आर्यरक्षित ने अपने शिष्यों को कहा-
1. पुष्यमित्र के प्रति में वाल के घट समान हूं अर्थात उसके प्रति निर्लिप्त हूँ। उसने मेरे पास से अधिक ज्ञान प्राप्त किया है।
2. फल्गुरक्षित के प्रति तेल के घट समान हूं- अर्थात उसके प्रति अल्प राग/लेप वाला हूं। उसने मेरे पास से थोड़ा कम ज्ञान प्राप्त किया है।
3. गोष्ठिमाहिल के प्रति में घी के घट के समान हूं- उसके प्रति में अधिक लेप वाला हूं। उसने मेरे पास से पुष्यमित्र व फल्गुरक्षित से कम ज्ञान प्राप्त किया है। अतः मेरे पद के लिए हर तरह से पुष्यमित्र सुयोग्य है।
और एक शुभ दिन उन्होंने शुभ मुहूर्त में पुष्यमित्र को अपने पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। वे गच्छ के भार से मुक्त हो गए।