मैंने संसार के नश्वर स्वरूप को अच्छी तरह से जान लिया है……. अतः इस महान आहर्ती प्रवज्या को स्वीकार कर पुनः इसके त्याग की मूर्खता क्यों करूं? यह तो मुझे महान पुण्य उदय से प्राप्त हुई है। इसके त्याग की इच्छा मूर्खता ही है।
गन्धक कुल में उत्पन्न हुआ सर्प, वमन किए हुए जहर को पुनः नहीं पीता है…. वह अग्नि में भस्मसात हो जाएगा परन्तु वमन की गई वस्तु का पुनः आस्वाद नहीं करेगा….. मैंने भी संसार के तुच्छ भोग सुखों का स्वेच्छा से त्याग किया है, अतः अब पुनः ग्रहण करने की बालीश चेष्ठा क्यो करू?
“यदि आपके दिल में मेरे प्रति स्नेह है….….तो आप सब प्रवज्या ग्रहण करें।”
“आर्यरक्षित कि वैराग्य पूर्ण धर्मदेशना सुनकर पिता ने कहा- मैं तुम्हारी तरह कठोर जैन व्रत स्वीकार करने में समर्थ नहीं हूं।”
आर्यरक्षित ने सोचा पिता का मिथ्यात्व अभी मन्द नहीं हो पाया है, अतः पहले अपनी मां को प्रतिबोध करूं। यह बाद में प्रतिबोध पाएंगे। इनके पहले मां को प्रतिबोध दू। माता दृढ़ सम्यक्त्व व्रतधारी है और उसी ने मुझे मोक्षमार्ग प्रदान किया है। इतना विचार कर उन्होंने अपनी माता से कहा- माँ! तुम तो ज्ञान की महानिधि हो। तुम्हारी आज्ञा से ही दृष्टिवाद को पढ़ते हुए मुझे इस संसार से पार उतरने की इच्छा जगी थी।
“इस कलयुग में सुनन्दा धन्य है जिसने वज्रस्वामी जैसे पुत्ररत्न को जन्म दिया है, परन्तु में तो सुनन्दा से भी तुझे अधिक धन्य मानता हूँ। उसने तो रुदन से खिन्न होकर अपने पति मुनि को पुत्र सोपा था……. और उसके बाद पुनः पुत्र प्राप्ति के लिए विवाद भी किया था, परन्तु तुमने तो संसार सागर से पार उतारने की बुद्धि से ही मुझे तोसलिपुत्र आचार्य को सौप दिया था। महान पुण्योदय से वज्रस्वामी के पास पूर्वो का ज्ञान प्राप्त कर अब तुम्हारे पास आया हू, अतः तुम भी परिवार सहित दीक्षा स्वीकार कर भवसागर से पार उतारो।”
माता ने कहा, “आर्यरक्षित! मै दीक्षा स्वीकार करने के लिए तैयार हूं, यदि परिवार में मेरे प्रति स्नेह वाले। होंगे तो वे भी मेरे पीछे अवश्य दीक्षा स्वीकार करेंगे।