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आर्यरक्षित सूरिजी – भाग 35

“खैर! अब तुम पुनः नगर के बाहर जाओ। मैं राजा को विज्ञप्ति करूंगा और वह तुम्हारा भव्य प्रवेश महोत्सव करेगा…… फिर तुम इस श्रमण वेष का त्याग कर देना….. और ग्रहस्थाश्रम का स्वीकार करना।

“तुम्हारे गुण और रूप के अनुरूप मैंने तुम्हारे लिए कन्या खोज लि है। वैद-विहित विधि के अनुसार तुम्हारा विवाह किया जाएगा……. जिससे तुम्हारी माता को भी पूरा संतोष होगा।

बेटा! तुझे धन अर्जन करने की चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि सात पीढ़ी तक खुटे नहीं, इतना धन अपने पास है। तुम्हारे गृहस्थ जीवन के स्वीकार करने के बाद ही मैं वानप्रस्थाश्रम स्वीकार कर लूंगा।

अपने पिता सोमदेव पुरोहित की यह बात सुनकर आर्यरक्षित ने कहा- तात! आप मोहाधीन होकर इस प्रकार की बातें कर रहे हैं? इस संसार में कौन किसका पिता और कौन किसका पुत्र है? सभी अपने कर्म के अनुसार नए-नए जन्म धारण करते हैं। राजा की कृपा से प्राप्त धन की क्या कीमत है?

बाह्य वैभव और संपत्ति कोई वास्तविक संपत्ति नहीं है। बाह्य धन संपत्ति को जल तरंग की भांति अत्यंत चपल है। वायु की तरह जीवन अस्थिर है। योवन तृण के अग्रभाग पर रहे जलबिंदु के समान है। दुनिया के संबंध/संगम स्वप्नतुल्य है। इन अस्थिर संबंधों में क्या राग करना? क्या द्वेष करना?

अनादि काल से परिभ्रमण करती हुई आत्मा को उस संसार में मनुष्य जन्म कि प्राप्ति अत्यंत दुर्लभ है। यह जीवन तो संसार में अमूल्य रत्न की प्राप्ति तुल्य है…… इसकी कीमत जीवन को प्राप्त करके जो मनुष्य सांसारिक सुखों के लिए अपना जीवन बिता देता है, वह कांच के टुकड़े के लिए रत्न देने की तैयारी कर रहा है।

“मनुष्य जीवन की सफलता विषय सुखों का त्याग कर मोक्ष सुख के लिए प्रयत्न करने में है। इंद्रियजन्य सुख तो क्षणिक, नश्वर व तुच्छ हैं। उन में आसक्त बनना बुद्धिमत्ता नहीं है।

“है तात! संसार के उन तुच्छ भोगों से आत्मा कब तृप्त बनी है? आत्म-तृप्ति तो त्याग से ही सम्भव है, भोग से नहीं?

आर्यरक्षित सूरिजी – भाग 34
July 23, 2018
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