परिवार का उद्धार
आचार्य पद से अलंकृत आर्यरक्षित सुरीवर शासन के ऐसे ही अनोखे प्रभावक पुरुष थे।
गुरुदेव के वियोग के बाद समस्त शासन और संघ की जवाबदारी उन पर थी। वे शास्त्रगामी थे……… ज्ञानी थे……. दक्ष थे…… गीतार्थ थे….. प्रभावक थे…… प्रवचनकार थे…… सर्वजीवचिंतक थे।
जिनशासन की अजोड़ प्रभावना करते हुए वे मालवा की भूमि पर विचर रहे थे। जिन-जिन गांवों में उनका पदार्पण होता….. लोग अत्यंत आदर-बहुमान से उनका स्वागत-सत्कार करते थे। इनकी अमृतवाणी का पान कर अनेक पुण्यात्मा जिनशासन रसिक बन रही थी।
अनके पुण्यशाली आत्माओं को उन्होंने सर्ववीरति का दान किया था। अनेक पुण्य आत्माओं को जिनशासन रसिक श्रद्धालु श्रावक बनाया था।
इस प्रकार अनेक क्षेत्रों में जिनशासन की ध्वजा फहराते हुए वे अपनी जन्म भूमि की ओर विहार कर रहे थे। विहार-यात्रा आगे बढ़ रही थी। इधर माँ रुद्रसोमा अपने पुत्र मुनिवर आर्यरक्षित के दर्शन के लिए उतावली बनी हुई थी। एक दिन आर्यरक्षित सूरीजी म. अपनी जन्मभूमि के बाहर पहुंच गए, फल्गुरक्षित मुनि ने नगर में प्रवेश किया। वह तुरंत ही अपने घर पर पहुंच गए और मां को शुभ संदेश देते हुए बोले- “माँ! माँ! तुम्हारा पुत्र आर्यरक्षित, गुरु बन कर आ गया है।”
रुद्रसोमा ने फल्गु रक्षित को जैन श्रमण वेष में देखा। वह आनंदित हुई और बोली, “क्या मैं इतनी पुण्यशाली हूं कि उसका मुख देख पाऊंगी?”
रुद्रसोमा इस प्रकार बोल रही थी कि तत्क्षण आर्यरक्षित सूरीजी म. वहां आ उपस्थित हो गए।
माता रुद्रसोमा ने आर्यरक्षित को जैन साधु के रूप में देखा……. उसका ह्रदय आनन्द से भर आया…. वह रोमांचित हो उठी….. उसकी आंखों में हर्ष के अश्रु अवतरित हुए।
उसी समय आर्यरक्षित सूरिवर के पिता सोमदेव पुरोहित भी वहां आ गए। उन्होंने अपने दोनों पुत्रों को देखा और अत्यंत ही स्नेह से आलिंगन किया।
उसने कहा- “बेटा! प्रवेश महोत्सव के बिना तुमने नगर में शीघ्र ही प्रवेश कैसे कर लिया? हां! मैं इसका कारण जान गया हूं……. तुम माता की विरह वेदेना को समझ गए हो…… अतः इसकी वेदना को दूर करने के लिए ही शीघ्र आ गए हो।”