नूतन आचार्य भगवंत आदि मुनिवर अपने गुरुदेव की सेवा में तैयार थे। आचार्य भगवंत अत्यंत ही सावधान थे। जिनशासन के रहस्य को उन्होंने मात्र जाना ही न था…….. उन रहस्यो को जीवन में आत्मसात भी किया था- इसी के फलस्वरुप उन्हें मृत्यु लेश भी भय नहीं था…… वह मृत्यु के स्वागत के लिए सुसज्ज से बने हुए थे। उनके मुख पर कोई ग्लानि नहीं थी…… और ना ही मृत्यु का भय।
‘मृत्यु तो देह का परिवर्तन मात्र है। मृत्यु द्वारा आत्मा मात्र देह को बदलती है। मैं देह से भिन्न अजर अमर आत्मा हूं। मृत्यु तो देह की होती है……. मेरी नहीं। मैं तो शाश्वत तत्व हूं। मैं अविनाशी हूं। मैं देह से ‘भिन्न हूं’।
इस प्रकार के सनातन सत्यो को उन्होंने अपने जीवन में आत्मसात किया था…….. इसी कारण उनके लिए मृत्यु का आगमन महोत्सव स्वरूप था।
“णमो अरिहंताणं….. णमो सिद्धाणं….. णमो आयरियाणं….. णमो उवज्झायाणं….. णमो लोएसव्वसाहूणं ऐसो पंच नमुक्कारो , सव्व पवप्पणासणो……मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मंगलं।
चत्तारि सरणम्……. पवज्जामी। अरिहंते सरणं पवज्जामी। सिद्धे सरणं पवज्जामी। साहू सरणं पवज्जामी। केवलि-पण्णतं धम्मं सरणं ……..पवज्जामी।” की अमरवाणी उनके मुखारविंद से प्रस्फुटित हो रही थी।
उन्होंने समस्त जीव राशि से, अपने शिष्य परिवार आदि से क्षमायाचना की। सभी शिष्यों ने भी अपने अपराधों के लिए उनसे क्षमायाचना की…….. और थोड़े ही पलों में उन्होंने सदा के लिए अपनी आंखें मूंद ली। भौतिक देह का त्याग कर वे अनंत की यात्रा में विलीन हो गए।
‘उड गया पंखी, पड रहा माला’ बस, समस्त शिष्य परिवार शोकमग्न हो गया। शिष्यो का शिरःछत्र दूर हो गया। उनके स्वर्ग-गमन से जैन संघ को भी एक भारी क्षति पहुंची।
वे एक महान युग प्रभावक महर्षि थे।
आर्यरक्षित सूरिजी आदिकी आँखे अश्रुसिक्त हो गई।
गुरुदेव की चिर-विदाई से संघ व समुदाय की समस्त जवाबदारी उनके सिर पर आ पडी। वे इस जवाबदारी को विवेकपूर्ण वहन करने लगे