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आर्यरक्षित सूरिजी – भाग 31

आर्यरक्षित की यह बात सुनकर वज्र स्वामी जी ने अपने ज्ञान का उपयोग लगाया। श्रुत के उपयोग से उन्होंने जान लिया कि मेरा आयुष्य अल्प है…… अतः आर्यरक्षित मुझे पुनः मिल नहीं पाएगा। आर्यरक्षित कि इतनी ही योग्यता होने से वह आगे के श्रुत का अध्ययन नहीं कर पाएगा और प्रभु महावीर के शासन में अंतिम दशपूर्व का ज्ञान मेरे तक सीमित रह जाएगा। जो भावी है, उसे टाला नहीं जा सकता, अतः अब आर्यरक्षित को रोकना उचित नहीं है। उस प्रकार विचार कर वज्र स्वामी जी ने कहा- वत्स! मैं तुम्हें जाने की अनुमति देता हूं। तुम खुशी से अपनी जन्मभूमि की और प्रयाण करो। इन सब मुनियों के बीच तुम्हारे जैसा कोई मेधावी नहीं है और इसी कारण मुझे भी तुमको अध्यापन कराने में विशेष आनंद आ रहा था। तुम्हारा मार्ग कल्याणकारी हो।

वज्रस्वामीजी के मुख से इस प्रकार आशीर्वाद पूर्ण वचन सुनकर आर्यरक्षित का ह्रदय आनंद से भर आया। उन्होंने वज्र स्वामीजी के चरणों में अत्यंत बहुमानपूर्वक प्रणाम किया। स्थिरता दरमियान जाने-अनजाने में हुई अपनी गलतियोंके लिए क्षमा याचना की।

वज्रस्वामी जी ने भी मिच्छामी दुक्कड़म बोला।

वज्रस्वामी जी के शुभ आशीर्वाद प्राप्त कर आर्यरक्षित ने अपनी विहार यात्रा प्रारंभ कर दी।

भगवान महावीर के शासन में वज्रस्वामी जी अंतिम दशपूर्वधर महर्षि हुए।

आर्यरक्षित ने वज्रस्वामीजी से साढ़े नो पूर्व का अध्ययन किया था।

गुरु के चरणों में समर्पण पूर्वक जो ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है, वह ज्ञान स्वपर उद्धारक होता है। लोकोत्तर जैनशासन में ज्ञान प्राप्ति के लिए जो आचार मर्यादाएं बतलाई गई है, वह अन्यत्र कही भी नहीं मिल सकती।

आर्यरक्षित मुनिवर के जीवन में विनय और नम्रता थी- इसी के फलस्वरुप ज्ञान के अगाध सागर को वे पा सके।

वह अपने बंधु मुनि आदि के साथ विहार करते हुए पाटलिपुत्र नगर में पधारे।

पाटलिपुत्र में उस समय तोसलिपुत्र आचार्य भगवंत विराजमान थे।

गुरुदेव श्री के दर्शन की तीव्र उत्कण्ठा के कारण आर्यरक्षित मुनिवर शीघ्र विहार कर तोसलिपुत्र आचार्य भगवंत के चरणों में आ पहुंचे।

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July 23, 2018
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