आर्यरक्षित ने कहा- “बन्धु! तुम्हारी बात बिल्कुल ठीक है…. परंतु अभी विद्या अध्ययन चल रहा है….. इसकी समाप्ति के बाद में भी मां की भावना पूर्ण करने के लिए दशपूर नगर आने की भावना रखता हूं। माता-पिता को सन्मार्ग प्रदान करके ही सचमुच उनके ऋण से मुक्ति पा सकते हैं। अतः विद्या अध्ययन की समाप्ति के बाद उस और विहार करने की भावना है। हां! फल्गु, तेरे दिल में मेरे प्रति स्नेह हो तो तू यहीं ठहर जा, हम दोनों साथ में चलेंगे।”
फल्गुरक्षित ने कहा- “मैं आपकी आज्ञा शिरोधार्य करता हूं।”
“फल्गु! तुम्हारा गृहस्थ वेष में रहना ठीक नहीं लगता है अतःअब तुम भी मेरे समान दिक्षित हो जाओ!” – आर्यरक्षित ने कहा।
तुरंत ही फल्गुरक्षित ने आर्यरक्षित की बात स्वीकार कर ली।
शुभ मुहूर्त में फल्गुरक्षित ने भी भागवती दीक्षा स्वीकार कर ली। वह भी आगारि मिटकर अणगार बन गया। भोगी मिटकर योगी बन गया।
श्रेयस्कारी कार्य के लिए देरी किस बात की? फल्गु रक्षित भी निर्मम भाव से संयम जीवन की साधना करने लगा।
आर्यरक्षित मुनिवर 10 वे पूर्व का अध्ययन कर रहे थे। इस पूर्व में अत्यंत कठिन नय-गम और निपेक्ष जविको का अध्ययन हो चुका था……. परंतु अब आर्यरक्षित को अध्ययन में कठिनाई महसूस हो रही थी।
एक बार आर्यरक्षित ने सहजता से वज्रस्वामीजी से पूछा- “भगवंत! अब मेरा अध्ययन कितना बाकी है?”
वज्रस्वामीजी ने कहा- अभी तो तुम्हारा समुद्र में बिंदु तुल्य ही अध्य्यन हो पाया है। मेरु के आगे सरसव का जो माप है, उतना ही अध्य्यन तुम्हारा हो पाया है, अतः समाप्ति की उत्सुकता किए बिना, स्थिरता पूर्वक अध्ययन करो।
स्थिरतापूर्वक अध्ययन करोगें तो ज्ञान का महासागर तुम पार कर सकोगे। वज्रस्वामीजी की इस बात को सुनकर आर्यरक्षित मुनि पुनः अध्ययन में लीन हो गए…… परंतु कुछ ही दिनों के बाद उन्हें आगे के अध्ययन में प्रमाद होने लगा। घोर श्रम करने पर भी आगे के सूत्र उन्हें याद नहीं हो रहे थे।
कुछ दिन बीतने के बाद फल्गुरक्षित ने पूनः आर्यरक्षित से पूछा- बंधुवर! अब कितने दिन ठहरना है?
आर्यरक्षित ने कहा- मैं आचार्य भगवंत से पूछकर जवाब देता हूं।
अध्ययन से श्रांत बने आर्यरक्षित ने एक दिन अवसर देखकर पुनः आचार्य भगवंत से पूछा- “भगवन! मेरा मन संबंधीजन के संग में उत्कंठित हुआ है…… में उनसे मिलकर अध्ययन के लिए पुनः आ जाऊंगा।”