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आर्यरक्षित सूरिजी – भाग 29

फल्गुरक्षित अत्यंत ही ध्यानपूर्वक आर्यरक्षित की तत्ववाणी का श्रवण कर रहा था।

फल्गु रक्षित ने कहा- पूज्यवर आपकी बात यथार्थ हीं है, फिर भी आत्मा में रहा मोह उछल ही पड़ता है। मैं आपके पास मां का संदेश लेकर आया हूं।

“कहो मां का क्या संदेश है? मां कुशल है ना? आर्यरक्षित ने पूछा।”

“पूज्यवर ऐसे तो मां कुशल ही है….. परंतु उसके दिल में आपके दर्शन की प्यास जगी है। मां का कहना है कि आप शीघ्र ही विहार कर दशपुर नगर की ओर पधारें। माताजी आपको बहुत याद कर रही है।”

फल्गुरक्षित की बात सुनकर आर्यरक्षित ने कहा- “फल्गु! संसार के क्षणिक पदार्थों पर क्या मोह करना? दुनिया के संबंध तो बदलते ही रहते हैं……. अतः उन पदार्थों पर राग करना निरर्थक है। सांसारिक सम्बन्धो में राग करना, आत्मा के लिए बन्धन रूप ही है अनादि काल से अपनी आत्मा राग द्वेष के बंधनों से जकड़ी हुई है। एक मात्र इसी जीवन में……. इस मानव भव में उन बन्धनों की, जंजीरों को छोड़ना संभव है। इस अमूल्य जीवन के बंधन-मुक्ति के लिए प्रयत्न नहीं होगा तो फिर उसके लिए पुरुषार्थ कब होगा।

“फल्गु! महान पुण्यउदय से हमें इस यह जीवन मिला है, राग द्वेष के बंधन तोड़ने में ही इस जीवन की सफलता/सार्थकता है। उस संसार में कौन किसका मित्र और कौन किसका शत्रु है?…… एक वटवृक्ष पर संध्या समय इकट्ठे हुए पक्षियों की भांति ही हमारा संयोग है…… उन संबंधों में मोहित हो जाना है एक मात्र अज्ञानता ही है…….. और फल्गु! देख, अभी मेरे ‘पूर्वो’ का अभ्यास चल रहा है। नो पूर्वो का अध्ययन पूर्ण हो चुका है, अभी तो मैं ज्ञान के अतल सागर की गहराई में डूबा हुआ हूं। पुण्योदय से परमाराध्यपाद वज्रस्वामीजी जैसे महान युगप्रधान महर्षि का मुझे संयोग प्राप्त हुआ है। वह मुझे माता सा वात्सल्य प्रदान करते हुए अभ्यास करवाते हैं। उनकी देह-लता जर्जरित हो चुकी है…..अतः इस ज्ञान साधना में अंतराय पैदा करना क्या तुझे उचित लगता है?

आर्यरक्षित की अमृत सी मधुर वाणी का श्रवण कर फल्गुरक्षित का दिल आनंद से भर आया। उसकी आत्मा में रहीं हुई मोह की मूर्छा दूर हो गई और वह बोला, “पूज्यवर! आपकी बात बिल्कुल ठीक है। संसार के संबंध से मोहजाल भरे हुए हैं…. फिर भी माता ने जो कहलाया है- ‘हम पर उपकार करने के लिए भी एक बार तुम अवश्य आना, इस बात की और थोड़ा सा ध्यान देना ही चाहिए।

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