किसी जीव के प्रति राग भाव न होना, समुचित है……. परंतु स्नेह भाव/निस्वार्थ वात्सल्य भाव तो होना ही चाहिए न! अतः तू एक बार इधर आ जा! मेरे तेरे मुख दर्शन के लिए उत्कंठित बनी हूं। तेरा मार्ग प्रशस्य है और उसी मार्ग पर चलने की मेरी भी उत्कंठा है, इतना ही नहीं, मैं तो चाहती हूं कि तेरे पिता, तेरा भाई….. तेरी बहन सभी तेरे मार्ग का अनुसरण करें।
हा! स्नेह के बंधन तूने तोड़ दिए हैं। तू एक कुटुंब का मिटकर समग्र विश्व का बन गया है, अतः तेरे दिल में एक छोटे से परिवार की विशेष ममता ना हो, यह बन सकता है। फिर भी हृदय में वात्सल्य भाव तो होना ही चाहिए ना!
खैर, तेरे दिल में हमारे प्रति लेश भी ममता/राग ना हो तो भी हमारे उद्धार के लिए तुम एक बार इधर जरूर आ जाओ।
इस प्रकार रुद्रसोमा ने अपने पुत्र आर्यरक्षित के लिए अपने लघु पुत्र फल्गु रक्षित के साथ अपना संदेश भिजवाया।
मां का संदेश लेकर फल्गु रक्षित आगे बढ़ने लगा। क्रमशः एक के बाद एक नगर को पार करते हुए वह उज्जैन नगरी पहुंच गया।
एक शुभ घड़ी में दोनों भाइयों का परस्पर मिलन हुआ। आर्यरक्षित को मुनिवेष में देखकर प्रथम क्षण तो फल्गु रक्षित को आश्चर्य हुआ……. परंतु दूसरे ही क्षण वह अपने ज्येष्ठ बंधु के चरणों में गिर पड़ा।
फल्गुरक्षित भातृ मिलन के आनंद को ह्रदय में समा न सका। फलस्वरूप वह आनंद, आंसुओं के द्वारा बाहर निकल पड़ा।
आर्यरक्षण ने लघु बंधू को ‘धर्मलाभ’ कि आशीष दी।
फल्गुरक्षित का गला रुंधा हुआ था। आर्यरक्षित ने भाई को आश्वासन देते हुए कहां, बंधो! हर्ष के स्थान पर तू शोक क्यों कर रहा है? इस संसार में जीवन के संबंध में कितने अस्थिर ओर क्षणभंगुर है?
“फल्गु! जब तक आत्मा को जैनदर्शन के तत्वो का यथार्थ बोध नहीं होता है तभी तक हमें संसारिक पदार्थों का आकर्षण होता है…… परंतु तत्व के यथार्थ बोध के साथ ही संसारिक पदार्थों और सम्बन्धो का आकर्षण क्षीण हो जाता है। पल-पल में जिनकी प अवस्थाए बदल रही है…..उन पदार्थो के प्रति क्या राग करना।”