वह सोचने लगी, ‘आर्यरक्षित अभी कहां विहार कर रहे हैं? उनका मुझे पता नहीं है, अतः उनकी जांच के लिए छोटे पुत्र फल्गुरक्षित को भेज दूं तो ज्यादा ठीक रहेगा।’
इस प्रकार विचार कर उसने अपने मन की बात अपने पति सोमदेव को कही।
सोमदेव ने कहा- प्रिये! आर्यरक्षित को बुलाने के लिए तूने फल्गुरक्षित को भेजने का जो निर्णय लिया है, वह समुचित ही है। अपने पतिदेव की सहमति प्राप्त कर रुद्रसोमा ने अपने पुत्र फल्गुरक्षित को बुलाया।
फल्गुरक्षित भी अत्यंत विनम्र और माँ का आज्ञाकारी पुत्र था। उसके दिल में मां के प्रति अपूर्व भक्ति और आर्यरक्षित के प्रति आदर व स्नेह का भाव था।
मां के बुलावे के साथ ही फल्गुरक्षित दौड़कर आया और मां के चरणों में प्रणाम कर बोला- माताजी! मेरे लिए क्या आज्ञा है?
फल्गुरक्षित के जीवन में हमें आर्यसंस्कृति के पवित्र संस्कारों के साक्षात दर्शन होते हैं। इस पवित्र संस्कृति का पुजारी, माता पिता की आज्ञा शिरोधार्य करता था। फल्गुरक्षित विनम्र भाव से मां के सामने खड़ा रहा।
मां ने कहा, बेटा! आज तुझे किसी अनिवार्य कार्य के लिए बुलाया है।
मां! जो भी आज्ञा हो, मुझे फरमाए! फल्गुरक्षित ने अत्यंत नम्रता से जवाब दिया।
बेटा! मैं तुझे आर्यरक्षित के पास भेजना चाहती हूं। तू अपने भाई के पास जाओ और उससे मेरी बात कहना-
आर्य रक्षित तूने माता का त्याग कर दिया है…… भाई का राग तोड़ दिया है……. मोह के साथ तू संघर्ष कर रहा है…… तेरे जीवन की समग्रता अंतरंग शत्रुओं के सामने लड़ने में व्यतीत हो रही है, यह जानकर मुझे आनंद है…… प्रसन्नता है। परंतु आर्यरक्षित! तेरे दिल मे राग की भावना न हो, यह उचित है फिर भी तेरे दिल में वत्सल्यता बुद्धि तो होनी ही चाहिए न? याद कर प्रभु महावीर को! जब वे मां के गर्भ में थे, तब भी उनके दिल में मां के प्रति कितनी भक्ति का भाव था।
‘बेटा! जीवन में स्नेह राग नहीं चाहिए, परंतु इसने भाव तो चाहिए न!