वज्रस्वामीजी भी आर्यरक्षित को सुयोग्य जानकर पूर्वो का अभ्यास कराने लगे।
आर्यरक्षित स्वाध्याय सागर में आकंठ डूब गए। ज्यों-ज्यों अभ्यास में आगे बढ़ने लगे, त्यों-त्यों उनका उत्साह बढ़ने लगा। जिनशासन के अगम्य रहस्य जानकर वे अपने आप को बड़भागी समझने लगे।
‘धन्य जिनशासन! धन्य गुरुदेव!’ की मधुर ध्वनि उनके रोम रोम में गूंजने लगी।
उनकी ज्ञान की सच्ची साधना व तीव्र लगन को देखकर वज्रस्वामीजी भी प्रसन्न हो गए।
अपूर्व ज्ञान साधना
योगी और भोगी का जीवन पंथ न्यारा और निराला ही होता है। एक गान में आसक्त होता है तो दूसरा ज्ञान में। दोनों के पंथ/ दोनों की दिशाएं भिन्न भिन्न है। फिर भी उन दोनों में एक समानता दिखाई देती है कि वह सदा अतृप्त होते हैं।
भोगी को भोग के साधन कितने ही मिल जाए, वह सदा अतृप्त ही रहता है। इंद्रियों के विषय-सेवन के बाद भी उसे पूर्ण तृप्ति या आनंद का अनुभव नहीं होता है……… उसकी तृषा…… उसकी भूख सदा बनी रहती है। वह सदा नए-नए भोगो और उनके साधनों की प्राप्ति के लिए लालायित बना रहता है। इस प्रकार वह सदा अतृप्त ही रहता है।
बस यही अतृप्ति की स्थिति है- एक योगी की भी। परंतु हा! उसकी दिशा और उसका पंथ अलग ही है, उसे आनंद आता है ज्ञान की प्राप्ति में। ज्यों-ज्यों शास्त्र अध्ययन-अध्यापन के बल से उसे नए-नए ज्ञान की प्राप्ति होती जाती है, त्यों-त्यों उसकी ज्ञान पिपासा बढ़ती जाती है।
ठीक ही कहा गया है-
‘संसारी जीव का शरीर भोग और भोग के साधनों की प्राप्ति के लिए होता है, जबकि योगियों का शरीर ज्ञान की प्राप्ति के लिए होता है।’
सम्यग ज्ञान की साधना में/ प्राप्ति में जो आनंद है उसे अज्ञानी कैसे जान सकता है। मानसरोवर का आनंद तो हंस लेता है। विष्टा में आलोटने वाला सूअर आनंद की कल्पना भी कैसे कर सकता है?