अब आर्यरक्षित मुनिवर ने उज्जैन नगरी में प्रवेश करने के लिए विहार प्रारंभ किया।
उज्जयिनी नगर में युगप्रधान आचार्य भगवंत ने एक स्वप्न देखा, मेरे पास दूध से भरा हुआ पात्र था, कोई अतिथि आया……. उसके सामने वह पात्र धरा….. उसने उस पात्र में थोड़ा सा दूध बाकी रखा….. और शेष सब दूध पी गया। वज्रस्वामीजी ने यह सपना अपने शिष्यो को बताया और उसका अर्थ करते हुए बोले, आज कोई आनेवाला है, जो मेरे पास से अधिकांश श्रुत ग्रहण कर लेगा…… थोड़ा ही श्रुत मेरे पास बचेगा, जो वह ग्रहण नहीं कर पाएगा।
वज्रस्वामीजी अपने शिष्यो से इस प्रकार बात कर रहे रहे थे कि मुनि आर्यरक्षित ने आकर उपाश्रय में प्रवेश किया और जोर से बोले- मत्थएण वंदामी।
अतिथि का आगमन जानकर वज्रस्वामीजी प्रसन्न हो गए और अपने आसन से खड़े हो गए।
वास्तव में, सत्पुरुषों का स्वप्न शीघ्र फलदाई होता है।
वज्रस्वामीजी ने भी ‘मत्थएण वंदमी’ कहकर आगंतुक मुनिवर का स्वागत किया और अत्यंत मधुर स्वर से बोले, ‘मुनिवर! आपका आगमन कहां से हुआ है?’
‘भगवन! मैं तोसलीपुत्र आचार्य भगवंत के पास से आ रहा हूं- आर्यरक्षित ने कहा।
यह सुनकर वज्रस्वामीजी बोले, अहो! तुम आर्यरक्षित, शेष पूर्व के अभ्यास के लिए तुम आए हो?
“हां! भगवन! आर्यरक्षित ने विनम्र स्वर से कहा।”
“तुम्हारी उपधि पात्र व संस्तार आदि कहां से है? आओ आज तुम अतिथि हो, अतः गोचरी जाने के लिए आवश्यकता नहीं है। गोचरी वापरने के बाद यही अपना पाठ चालू कर देंगे।” वज्रस्वामी ने कहा।
वज्रस्वामीजी की बात सुनकर आर्यरक्षित बोले-भगवन! में अलग स्थान में उतरा हूं….. वहीं पर गोचरी और शयन करूँगा।
वज्रस्वामीजी ने पूछा- प्रथक रहकर किस प्रकार अध्ययन करोगे?
वज्रस्वामीजी के इस वचन को सुनकर आर्यरक्षित ने भद्रगुप्तसूरीजी म. की कही बात कह दी। आर्यरक्षित कि इस बात को सुनकर वज्रस्वामी ने आर्यरक्षित को अलग वसति में ठहरने की सम्मति दे दी।
बस! शुभ मुहूर्त में आर्यरक्षित का अध्ययन प्रारंभ हो गया। अत्यंत विनय के साथ वे अध्ययन करने लगे।