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आर्यरक्षित सूरिजी – भाग 17

जिन शासन में गुरु की भी अपनी योग्यताएं बतलाई गई है। हर किसी को गुरु बनने का अधिकार नहीं है। गुरु पर शिष्य के आत्म हित की सबसे बड़ी जवाबदारी होती है। शिष्य का योगक्षेम करने की ताकत हो और जिसमें स्वपर हिताहित को जानने/सोचने व करने की शक्ति हो, वही गुरुपद प्राप्त कर सकता है और वही व्यक्ति गुरु पद के गौरव को टीका सकता है।

प्रवज्या-विधि में गुरुदेव शिष्य के मस्तक पर वासचूर्ण डालते हैं और कहते हैं…… हे महानुभाव! तुम जल्दी ही भव से निस्तार को प्राप्त करो।

तोसलीपुत्र आचार्य भगवंत ने प्रव्रज्या विधि कराकर, आर्यरक्षित के मस्तक पर मंत्रित सुगंधित वास निक्षेप किया। तत्पश्चात आचार्य भगवंत ने उसके मस्तक का केशलोच किया।

केशलोच एक सामान्य विधि नहीं है……. उसके पीछे देहाध्यास को तोड़ने का एक महान विज्ञान रहा हुआ है। देह के प्रति निर्मम बनी आत्मा, स्वेच्छा से अपना केशलोच करवाती है।

आचार्य भगवंत क्लेश की भांति सर्व केशो का भी लुंचन कर दिया।

उसके बाद ईशान कोने में जाकर आर्यरक्षित ने अपने गृहस्थ-वेष का परित्याग किया और साधु जीवन के श्वेत वस्त्र धारण किए

आर्यरक्षित के जीवन में एक नया मोड आया।

वर संसारी मिटकर साधु बन गए।

वे भोगी मिटकर योगी बन गए।

वे अगारी मिलकर अणगार बन गए।

साधु वेष के साथ ही आर्यरक्षित की जीवनचर्या/दिनचर्या बदल गई।

मानव मन पर वेष का भी अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। वेष भी शुभाशुभ भावों का जनक है। उद्भट वेष कामवासना को उद्दीप्त करता है….. तो साधु का पवित्र वेष वासनाओं के जाल को भस्मीभूत कर देता है और जीवन में नई चेतना लाता है।

गुरुदेव ने आर्यरक्षित के मस्तक पर हाथ रखा….. और उसे ह्रदय से आशीष प्रदान की।

प्रवज्या विधि की समाप्ति के बाद नूतन मुनिवर आर्यरक्षित को साथ लेकर आचार्य भगवंत ने वहां से विहार कर दिया।

साधु जीवन अर्थात यतनामय जीवन। यतनापूर्वक ही चलना, बोलना, खाना, पीना, सोना, उठना इत्यादि। यतना यह साधु जीवन का भूषण/अलंकार है।

आर्यरक्षित मुनिवर के संयम जीवन का शुभारंभ हो चुका था। उनके श्रमण-जीवन में माता की भावना निमित्त बनी। बस! नूतन मुनिवर साधू-चर्या में मस्त बन गए। स्वाध्याय साधु जीवन का मुख्य अंग है। शास्त्र में साधु के लिए 5 प्रहर तक स्वाध्याय करने का विधान है।

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