भिखारी ने सोचा , ऐसे भी मैं हूँ, अतः व्रत ग्रहण करने से मुझे भोजन मिलता हो तो यह व्रत भी मुझे स्वीकार है। इस प्रकार विचार कर वह दीक्षा स्वीकार करने के लिए तैयार हो गया।
तत्पश्र्चात् मैंने उसे दीक्षा प्रदान कि। दीक्षा स्वीकार करने के बाद उसे मोदक आदि खिलाए गए। स्वादिष्ट भोजन की प्राप्ति होने के कारण उसने भूख से भी अधिक भोजन कर लिया जिसके परिणाम स्वरुप उसे रात को शूल की पीड़ा उत्पन्न हुई उस समय अन्य मुनि व श्रेष्ठि आदि भी नूतन मुनि की सेवा सुश्रुषा करने लगे। सभी साधुओं ने उसे निर्यामणा कराई -वह मुनि अत्यंत ही समाधि पूर्वकाल धर्म को प्राप्त हुए और मरकर कुणाल राजा के पुत्र, तुम संप्रति बने हो।
अपने पूर्व भव को सुनकर संप्रति राजा अत्यंत ही खुश हो गया।
उसने कहा, हे प्रभो! यह राज्य भी आपकी ही कृपा का फल है उस समय आपके दर्शन नहीं हुए होते तो मुझे संयम की प्राप्ति कहां से होती? गत भव में आप मेरे गुरु थे- इस भव में भी आप ही मेरे गुरु हो । हे प्रभो! आप मुझे योग्य आदेश करें।
आर्य सुहस्ती ने कहा, राजन्! इस लोक और परलोक में सुख देने वाले जिन धर्म का हृदय से स्वीकार करो।
उसी समय गुरु आज्ञानुसार संप्रति राजा ने श्रावक धर्म का स्वीकार किया। वह त्रिकाल जिन पूजा करने लगा और जिन शासन की अद्भुत आराधना व प्रभावना करने लगा। उसने समस्त पृथ्वी को जिन मंदिरों से विभूषित कर दी।
अनार्य देश में भी जिन धर्म के प्रचार के लिए उसने अनेक श्रावको को यति वेष प्रदान कर उस भूमि में भेजा और वहां के प्रजाजनों को साधु की आचार- मर्यादा आदि का शिक्षण प्रदान कराया। इस प्रकार सम्प्रति राजा ने अनार्य देश के अनार्य प्रजाजनों को भी जैन धर्म से भावित बनाकर जैन शासन की अपूर्व प्रभावना की।
संप्रति राजा ने अपने जीवन में अनेक दानशालाए खुलवाई।
अंत में आर्य महा गिरी ने अनशन व्रत स्वीकार किया। वह कालधर्म प्राप्त कर देवलोक में गए- वहां से च्वयकर मोक्ष में जाएंगे।
आर्य सुहस्ति ने अनेक भव्य जीवो को प्रतिबोध देते हुए पृथ्वी तल पर विचरने लगे । अंत में आयुष्य की समाप्ति के समय समाधि पूर्वक कालधर्म प्राप्त कर देवलोक में गए वहां से च्यवकर मोक्ष में जाएंगे।
जिनकल्प के विच्छेद के बाद भी जिनकल्प की तुलना करने वाले आर्य महागिरी और एक रंक को दीक्षा प्रदान कर आगामी भव में संप्रति राजा के माध्यम से जिन शासन की अपूर्व शासन प्रभावना कराने वाले आर्य सुहस्ति म. को कोटि-कोटि वंदना।