आचार्य भगवंत ने कहा, जिनधर्म की आराधना का सुपक्व फल मोक्ष और अपक्व फल देवलोक आदि के सुख है।
पुनः राजा ने पूछा , प्रभो! सामायिक का क्या फल है? आचार्य भगवंत ने कहा , हे राजन्! अव्यक्त सामायिक का फल राज्य आदि की प्राप्ति है।
संप्रति महाराजा ने आचार्य भगवंत की बात का हृदय से स्वीकार किया। तत्पश्र्चात् राजा ने कहा, प्रभो! क्या आप मुझे पहिचानते हो?
श्रुतज्ञान का उपयोग लगाकर आचार्य भगवंत ने कहा, हे राजन् ! मैं तुम्हें अच्छी तरह से पहिचान गया हूँ। तुम पूर्वभव में मेरे शिष्य थे । तुम अपनें पूर्वभव की कथा सुनो।
हे राजन्! एक बार आर्य महागिरि और मैं अपनें परिवार के साथ विहार करते हुए कौशांबी में गए। वहां पर छोटी – छोटी वसति होने से हम अलग-अलग उपाश्रय में ठहरे । उस समय वहां पर भयंकर दुष्काल था, फिर भी लोग साधुओं के प्रति अत्यंत ही भक्तिवाले थे।
एक बात संघाटक मुनियों ने एक श्रेष्ठी के घर में भिक्षा के लिए प्रवेश किया। उनके पीछे- पीछे द्वार पर खड़ा भिखारी भी भीख मांगने लगा ।
वह श्रेष्ठी उन मुनियों को अत्यंत ही आदर – बहुमान पूर्वक लड्डू बहोराने लगा। श्रेष्ठी लड्डू लेने के लिए मुनियों को पुनः- पुनः आग्रह करने लगा, परन्तु वे मुनि पुनः – पुनः निषेध करने लगे ।
सामने से मिष्ठान्न मिलने पर भी मुनियों के द्वारा निषेध करने पर उस भिखारी को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने उन महात्माओं के पास भिक्षा याचना करने का निश्चय किया।
जैसे ही वे महात्मा श्रेष्ठि के घर से बाहर निकले, वह भिखारी उनके पास भिक्षा की याचना करने लगा।
महात्माओं ने कहा, इस भिक्षा पर हमारा कोई अधिकार नहीं है, इस भिक्षा पर तो हमारे गुरुदेव का अधिकार है। अतः उनकी आज्ञा के बिना हम कुछ भी देने में असमर्थ है।
मुनियों के मुख से इस जवाब को प्राप्त कर वह भिखारी भी उन महात्माओं के पीछे- पीछे वसति में आया और गुरुदेव के पास याचना करने लगा। उस समय मैंने अपनें ज्ञानोपयोग के द्वारा देखा की यह भिखारी तो भविष्य में जिन शासन का महान प्रभावक बनेगा । इस प्रकार विचार कर मैंने कहा, यदि तुम दीक्षा अंगीकार करो तो तुम्हें भोजन मिल सकता है।