उसके बाद उस श्रेष्ठि ने अपने परिवार जनों को कहा, ऐसे त्यागी मुनियो को अत्यंत ही भक्ति और बहुमान पूर्वक दान देना चाहिए। ऐसे त्यागी मुनियो को दान देने से महान लाभ होता है; अतः ऐसे महात्माओं के आगमन पर खूब भक्ति करनी चाहिए।
दूसरे दिन आर्य महागिरी भिक्षा के लिए जब उस श्रेष्ठि के घर पधारे, तब अत्यंत ही भक्तिभाव से वह गोचरी बोहराने लगा।
अपने श्रुतज्ञान के उपयोग से आर्य महागिरी ने वह भिक्षा दोषयुक्त जानी। वे भिक्षा लिए बिना ही वसति में आ गए।
उपाश्रय में आकर आर्य महागिरी ने आर्य सुहस्ति को ठपका देते हुए कहा, कल तुमने मेरा जो विनय किया, उससे मेरी भिक्षा अणेशणीय हो गई। वे तुम्हारे उपदेश से भिक्षा देने के लिए तैयार हुए है।
आर्य सुहस्ति ने उसी समय क्षमा याचना की और भविष्य में पुनः ऐसी भूल न करने का संकल्प किया
एक बार जीवंत स्वामी की प्रतिमा की रथयात्रा को देखने के लिए आर्य महागिरी और आर्य सुहस्ति अंवती नगरी में पधारे ।महा उत्सव के साथ जीवन्तस्वामी की रथ यात्रा नगर में आगे बढ़ने लगी। दोनों आचार्य भगवंत भी उस रथ यात्रा के साथ आगे बढ़ रहे थे।
उस समय संप्रति राजा उज्जयनी में राज्य करता था। जिस समय वह रथ राजमहल के निकट पहुँचा, उस समय संप्रति राजा राजमहल के झरोखे में बैठकर नगर के दृश्य को देख रहा था। अचानक आर्य सुहस्ति को देखकर वह सोच में पड़ गया ,अहो! इनको मेने कहि देखा है। इस प्रकार विचार करता हुआ राजा तत्काल मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा । मंत्रीजनो ने उनका शितोपचार किया । थोड़ी देर बाद राजा की मूर्च्छा दूर हुई। जातिस्मरण ज्ञान के कारण उसे अपना पूर्वभव दिखाई देने लगा।
तत्क्षण वह महल में से नीचे उतर गया और आचार्य भगवंत को तीन प्रदिक्षणा देकर बोला, प्रभो! जिनधर्म की आराधना का क्या फल है?