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आर्यमहागिरी- आर्य सुहस्ति सूरी – भाग 1

आर्य स्थूलभद्र स्वामी के आर्य महागिरी और आर्य सुहरित नाम के दो प्रधान शिष्य थे। वे दोनों दशपूर्वी थे। पृथ्वीतल पर विचरण कर वे अनेक भव्यजीवों को प्रतिबोध देते थे। अपनें धर्मोपदेश द्वारा आर्य महागिरी ने अने शिष्यों को तैयार किया था।
उस समय जिनकल्प का विच्छेद हो चुका था, फिर भी जिनकल्प की तुलना करने के लिए उन्होंने अपनें गच्छ का भार आर्य सुहस्ति को सौंप दिया और स्वयं एकाकी विहार करने लगे ।
भव्यजीवों को धरदेशना देते हुए वे एक बार पाटलिपुत्र नगर में पधारें। उसी नगर में आर्य सुहस्ति ने वसुभूति नाम के सेठ को प्रतिबोध दिया, इसके फलस्वरूप वह सेठ जिव- अजीव आदि नौ तत्वों का ज्ञाता बना । उसके बाद वह सेठ अपनें परिवार जनों को धर्मबोध देने लगा , परन्तु उन्हें बोध नहीं लगा । इसलिए सेठ ने आर्य सुहस्ति म. को विनति करते हुए कहा,`हे प्रभो! मेरे समझाने पर भी मेरे परिवारवाले प्रतिबोध नहीं पा रहे है, कृपया आप उन्हें समझाने की कोशिश करें ।’
सेठ की विनति का स्वीकार कर आचार्य भगवंत उसके घर पर पधारें, और उन्होंने वैराग्यवाहिनी धर्मदेशना देना प्रारंभ की । इसी बीच भिक्षा के लिए परिभ्रमण करते हुए आर्य महागिरी म. ने उसी सेठ के घर में प्रवेश किया।
आर्यमहागिरि को देखते ही आर्य सुहस्ति अपनें आसन पर से खड़े हो गए और उन्होंने उन्हें भावपूर्वक वंदना की।
उसी समय श्रेष्ठी ने पूछा ,`क्या आपके भी ये गुरु है?’
आर्य सुहस्ति म. ने कहा ,`ये मेरे गुरुदेव है , भिक्षा में अंत-प्रांत व निरस आहार ग्रहण करते है । योग्य भिक्षा प्राप्त नहीं होने पर ये उपवास कर लेते है। ये महर्षि परम वंदनीय है, इनकी चरणरज भी स्पर्शनीय है।’
इस प्रकार आर्य महागिरी की स्तवना कर उन्होंने पूरे परिवार को धर्मबोध दिया। उसके बाद आर्य सुहस्ति उपाश्रय में चले गए।

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