वर्धमान कुमार प्रियदर्शना को खिलाते, हाथमेँ उछालते , उसे खुदके हाथों से भोजन करवाते। परंतु यशोदा को स्पष्ट नजर आता था कि मेरे स्वामी यह सब केवल औचित्य के लिए करते है । उसमे स्नेहराग का अंश भी दिखाई नहीं देता ।
यशोदाको तो यह बात ही समझमें नहीं आती थी कि ,’ मुझे रोना चाहिए कि हंसना चाहिए ?’ देवांगना जैसी सक्कर से अधिक मीठे वचनों को उच्चरनेवाली, निर्दोष प्रियदर्शना पर एक सज्जन पिता को स्नेहकी लकीर भी न फूटे वह उनका कितना प्रचंड वैराग्य ! कामरोग को चलो अभी भी यह विश्च ख़राब गिनता है, परंतु स्नेहराग, संतान के प्रति का वात्सल्य तो सभी ही अच्छा गिनते है ! संतानो को खिलाना यह तो माता – पिता के लिए धरती पें उतरा हुआ स्वर्ग गिना जाता है ! परंतु यह वर्धमान ! स्नेहराग को भी विष मानते है ! कामराग से भी ज्यादा ख़राब मानते है! कैसा इनका अप्रतिम वैराग्यभाव ! स्वामी के इस गुण पर हंसना ? या फिर स्वामी के विराग पूर्ण व्यवहार की वजहसे खुद के सुखों का शब बनते देख रोना ?
परंतु इसके साथ ही यशोदामें रहा हुआ पत्नीत्व और मातृत्व उसे बहुत रोने की प्रेरणा कर रहा था !
यशोदाने माँ से भी ज्यादा स्नेहको बरसाती त्रिशला और प्यारी बेटी प्रियदर्शना अपार स्नेह को पाकर खली मन को भर दिया था ! माता त्रिशला साक्षात देवी ! स्त्री सहज माया , ईर्ष्या , निर्दया आदि कोई भी दोष इनमें नहीं थे ! सभी माता से अधिक वत्सल्यको देनेवाली वह सास ! नहीं, नहीं ! यशोदा उन्हें कभी भी सासु मान ही नहीं सकी थी ! पतिका स्नेह नहीं मिलने के बावजूद यशोदाका संसार इन दो पात्रो से हराभरा रहता था !
यशोदा रोज परमेस्वर से प्राथर्ना करती थी कि , ‘ माता त्रिशलाका आयुष्य बहुत लम्बा रहो ! मेरा आयुष्य उन्हें मिक जाओ !’ कारण? त्रिशला यदि जगत से विदाय ले ले तो यशोदा पे आभ टूट पड़े ! क्योंकि बात -बातमें वर्धमान बोले थे , ” यशोदा ! मेरी प्रतिग्ना है कि माता – पिता जीवंत रहेंगे तब तक संसार त्याग नहीं करना ! इसलिए यदि त्रिशला यदि मृत्यु को पाए तो उसके साथ ही वर्धमान भी यशोदा को छोड़कर चले जानेवाले थे ! इस लिए वह आँखों को साद्र बनाकर कुदरत से विनंती करती थी कि ‘ माता त्रिशला को दीर्धायु रखना !’