वर्धमान : ” यशोदा ! मेरी इच्छा थी कि एकबार तू और प्रिया मुझे मिलने के लिए आजाए! मुझे कई बाते करनी ही थी !”
यशोदा ! मेरा मार्ग अभी बदल गया है ! माता पिता का देहांत होने से मेरी प्रतिज्ञा पूरी हो गई है ! में बड़े भाई के आग्रह से अभी दो वर्ष मुनि के जैसे यहाँ ही जिऊगा! परन्तु अभी मेरी साधना की भूख अदम्य बनी हे! वीतरागता की झंखना रोमरोम में प्रसर चुकी हे ! कभी महाभिनिष्क्रमण के मार्ग पर डग रखु? कभी घोर अतिघोर साधना करके वीतरागता को पाउं? कभी तीर्थ की स्थापना करके करोडो जीवो का इस असार संसार में से तारु? नन्दन राजर्षि के भव में जो भवना घुंटी थी उसे सफल करने की तक अब आ चुकी है!
यशोदा! मैंने मेरे तरफ से तेरे प्रति की और प्रिया के प्रति की सभी ही फरज अदा की है! कहाँ भी मेरी और से तुझे या प्रिया को दुःख न हो उसकी बहुत सावधानी रखी है! अभी मात्र मेरी एक ही भावना हे की तुम दोनों मुझे संसार त्याग करने की सहर्ष अनुमति दो ! भाई नंदिवर्दन की तरह तूम दोनों जिद मत करना!
वर्धमान ने गोद में बेठी प्रियदर्शना से पूछा,”तू मेरी बात माँनेगी ! तुझे अब मुझे भुलना है, तेरी माँ के साथ ही तुझे सदा रहना है!”
प्रियदर्शना: “बापूजी! मै आज आपको यही तो कहने के लिए आई हूँ , कि मै या माँ आपको नहीं रोकेगे! काकाश्री भले आपको रोके ! में नहीं रोकूँगी! बापूजी ! मै आपकी पुत्री हूँ, आपके सुसंस्कार ही मुझमे भरे हुए है! जब आप विश्व के हितार्थ अपने कदम बढ़ा रहे है तो हम फिर आपको क्यों रोकेगे? क्यों बाधक बनेगे?
बापूजी! सिर्फ आख़िरी बार आपसे मिलने के लिए आई हूँ, अब कभी आपकी साधना में दखल नही दूँगी ! यदि माँ यहाँ आने की जीद करेगी तो भी में उसे रोकूँगी ! बोलो इससे ज्यादा आपको क्या चाहिए!
माँ! मेने तुझे कहा था , की में बापूजी को खुश खुश कर दूँगी, यह मेरी बात सही हैं ना !
परन्तु बापूजी ! एक विनंती हमारी आपको ही माननी पड़ेगी ! जब आप साधना करके वीतराग बनोगे , तब तत्काल हमें सन्देश भेजना, हम दोनों आपके पास आकर आपके सम्मुख ही दीक्षा आपके द्वारा लेना चाहेंगे ! क्यों माँ सही हैं ना ?
थोड़ी देर बाद यशोदा ने प्रियदर्शना के साथ विदा ली !
दो वर्ष देखते-देखते व्यतीत हो गये! बिच-बिच में यशोदा प्रियदर्शना को लेकर दूर से ही स्वामी के दर्शन कर लेती! स्वामी को दखल पैदा न हो इसलिए दूर से ही दर्शन करके चली जाती।।
आगे कल की पोस्ट मे पडे..