राजमहल के नजदीक में ही कुमार वर्धमान एक अलायदे भवन में रुके हुए थे। दो वर्ष संसार में रहकर भी संपूर्णतः मुनि जैसा जीवन जीनेवाले थे। इसलिए ही यशोदा प्रियदर्शना को लेकर वर्धमान को मिलने चली तो सही, परन्तु मन में शंका का कीड़ा खदबदने लगा।
मुनि तो स्त्री के सामने आँखे भी ऊंची नहीं करते, तो क्या वर्धमान मूझे नहीं देखेंगे ?
मुनि तो स्त्रीयों को स्पर्शते भी नहीं है, तो क्या स्वामी मुझे तो ठीक, परतुं प्रिया को स्नेह से मस्तक पर हाथ रखकर आशीर्वाद भी नहीं देंगे? मै तो उनका कोई भी प्रकार का वर्तन सहन कर लूंगी। परंतु प्रिया तो बिचारी छोटी हैे। यदि स्वामी बेहुूदा वर्तन करेंगे, तो प्रिया कैसे सहन करेगी?
माँ-बेटी दोनों ने ही वर्धमान के भवन में प्रवेश किया, दोनों ने देखा कि थोड़ी दूर खुले आसमान के नीचे वर्धमान पद्मासन मुद्रा में ध्यानस्थ बैठे है। अहो हा ! क्या उनके मुख मण्डल पर प्रसन्नता ? संसारी न समझ सके कल्पना न कर सके , ऐसा आत्मिक आनंद वर्धमान के आत्मप्रदेशों में हिलोडे ले रहा है।
” बापुजी ! बा……. पु……जी !” बोलते हुए प्रियदर्शना यशोदा का हाथ छोड़कर वर्धमान की ओर भागी। उस मधुर आवाज ने वर्धमान के ध्यान को भंग किया। वर्धमान ने आँखे खोली । सामने ही देवबाला जैसी लागती प्रियदर्शना को निरखा। प्रियदर्शना वर्धमान के सामने आकर एक पल रुक गई। पिताजी को उसने ऐसे कभी देखा नहीं था। इसलिए क्या करना ? इसके आसमंज्ज्स्य में वह स्थित रही।
परंतु यह तो थे वर्धमानकुमार ! विश्व के सर्वजीवो की वात्सल्यमयी माता ! मुस्कान सहित वर्धमान ने दो हाथ बढ़ाए ! ” आ जा प्रिया ! क्यों अटक गई ?” और प्रिया दुगुणी तेजी से दौड़कर वर्धमान को गले लग गई। मात्र दो चार दिनों का ही बीच में विरहकाल पसार हुआ था।परंतु जाने की बरसो के बाद पिता – पुत्री का मिलन होता हो वैसा दृश्य खड़ा हुआ था। वर्धमान प्रिया के मस्तक पर हाथ प्रसारते हुऐ बोले, ” प्रिया ! आनंद में तो है ना। मेरे बिना अच्छा नहीं लगा ? तेरी माँ ने तुझे संभाला नहीं ?”
यशोदा इस देवदुर्लभ दृश्य को देखकर हर्ष के आंसु सारने लगी। उसकी कल्पना गलत हो गई। वर्धमान ने उन्हें आवकारा था। धीमे पगलों से यशोदा भी पास में गई। स्वामीके चरणों को स्पर्श करके पैर के पास ही बैठ गई।
यशोदा : “प्रिया को आपसे मिलने की बहुत उत्कंठा थी ,इसलिए आपके पास लाई हूँं। बाकि आपकी साधना में , मैं खलल पहुंचाती नहीं।”
आगे कल की पोस्ट मे पडे..