वह थी मार्गशीष शुक्ला तेरस की रात्री। ऐसी भी क्षत्रिकुड हिमालय के पास होने से ठंडी बहुत पडती थी। यशोदा ने सोते समय ही प्रियदर्शना को रत्नकम्बल ओढा दिया था। राजकुलो में सामान्य से सवा लाख रूपये की किंमत की वजन मे हलकी, ठंडी गरमी दोनो को रोकने के स्वभाव वाली रत्नकम्बलो का उपयोग होता था। यशोदा भी यही रत्नकंबल को ओढ कर प्रियदर्शना के बाजु में ही सो गई थी। रात्रि जैसे जैसे गहरी होती गई वैसे वैसे ही ठंडी भी बढती गई। भुल से यशोदा का हाथ रत्नकम्बल से बहार निकल गया और पशचिम दिशा के विशाल झरोखो मे से आते पवन से यशोदा का हाथ सुन्न हो गया। आचानक उनकी निंद उड़ गयी। वह लगभग साडे चार बजे का प्रातः काल का समय था। यशोदा ने फिर सोने का प्रयत्न किया, परन्तु अभी निंद्रा शत्रुणी बनी।
यशोदा को झरोखे मे खडे रहकर खुल्ले आकाश की ओर देखते रहना बहुत रुचता। कुदरता के इस अप्रतिम सौंदर्य को बहुत बार यशोदा निहारती। यशोदा शय्या पर से खडी हुई। संपूर्ण शरीर पर ठीक तरीके से रत्नकम्बल को ढक्कर यशोदा धीरे धीरे झरोखे मे पहुंची। जब वह आकाश की तरफ देखने जा रही थी तभी उसके पहले उसकी नजर राजमहल के बगल मे रहे उद्यान मे पङी और यशोदा के साडे तीन करोड़ रूवाटे ध्रुज उठे। वह स्तब्ध हो गई। “यह क्या?” उसे खुद की जात पर धिक्कार वछुता। उसे लगा कि वह स्वतः ही सतीत्व गुमा रही है।
क्या था वह?
उद्यान के एक पेड के नीचे वर्धमान कुमार कायोत्सर्ग मुद्रा में नेत्रों को निचे ढालकर खडे थे। चन्द्र का स्वच्छ, शितल प्रकाश उनके सम्पूर्ण देह को चान्दी से स्नान करवा रहा था। यशोदा को पल दो पल में ही ख्याल आ गया कि वह कुमार वर्धमान ही थे।
यशोदा विचारो के तरंग मे डुब गई। स्वामी के देह पर पतले सुतराऊ कपडे ही धारण किये है। क्या उनको ठंडी नही लगती होगी?। साधना करने के लिए इतना सब करना पड़ता है? सम्पर्ण शरीर पर मै तो रत्नकंबल ओढ कर खंडी हुँ और मेरे प्राण नाथ अति भयंकर ठंडी मे भी प्रसन्न चित से थोडे पतले वस्त्र पहन के खडे है। क्या यह मुझे शोभता है? यशोदा त्वरीत ही शरीर पर ओढी हुई कंबल दुर कर दी। तभी उसे अहसास हुआ की ठंडी असह्य थी। परन्तु उसका लक्ष्य अभी इस तरफ था ही नही।।
आगे कल की पोस्ट मे पडे..