दूर दूर जहाज चले जा रहे थे । क्षितिज पर मात्र बिन्दु के रूप में जहाज उभर रहे थे ।
‘तुम मुझे इस सुने यक्षद्विप पर छोड़कर चले गये ? अकेली… निरी अकेली … औरत को इस डरावने द्विप पर छोड़ देने में तुम्हें बदला मिल गया अपनी बात का ? यक्ष की खुराक के लिये मुझे छोड़ दिया । ठीक ही किया तुमने अमर ।’
‘बचपन की निर्दोषता … मासूमियत… प्यारभरा गुस्सा, भावुकता … भीतरी प्यार… यह सब कुछ तुमने भुला दिया ? मेरे असंख्य प्यारभरे बोल तुम याद न कर सके ? एक ही बार नादानी में कहे गये उन शब्दों को आज यहां ऐसे वक्त में याद किया ? अरे… तुमने तो शायद उन शब्दों को हमेशा याद रखा होगा । दिल में दबा रखा होगा । और उसका बदला लेने के लिये मेरे साथ शादी का नाटक रचाया होगा ? मुझे विश्वास में लेने के लिये प्यार का दिखाया किया ?’
‘अमर …अमर…मेरे अमर । यह तुझे क्या हो गया मेरे अमर ? क्या तू तभी से मुझ से नफरत करने लग गया था ? पर मैंने तो हर वक्त तुझे चाहा है । मेरे मन-मंदिर में मेरे देव के रूप में तेरी प्रतिष्ठा की है । तू मुझे छोड़ गया … फिर भी मैं तुझे नहीं भुला सकुंगी । नहीं अमर , मैं तुझे कैसे भुला दू ? मैंने तुझसे प्यार किया था । मुझे बदला लेना भी नहीं था … नहीं मैंने कभी किसी बात का बदला मांगा ।’
‘तेरे लिये मेरे मन में कितनी ऊँची आशाएँ थी ? तेरे में मैंने कितने महान गुण देखे थे ? तेरे को मैंने प्यार का सागर माना था । पर मेरी सारी कल्पनाएं झूठी हो गयी ।’
‘अमर, तूने मुझे इस तरह छोड़ दिया ? इसकी बजाय तो यदि तूने अपने ही हाथों मुझे जहर दिया होता तो मैं बड़ी खुशी से… अपने प्यार की आबरू के खातिर भी तेरा दिया जहर ले लेती । मैं तुझे महान मानती । पर यह तूने क्या किया , अमर? एक मासूम नारी से इस तरह का त्रुर बदला लिया ? और यह भी इस कुख्यात द्विप पर ? जहां इंसान की जान की कोई कीमत नहीं होती । ओह , अमर । तूने सब कुछ भुला दिया । अभी आज सुबह ही तो तूने कितना प्यार किया था ? कितनी प्यार भरी बातें की थी ? क्या वो सब झूठ था ? फरेब था ….? तूने प्यार की जाल रचायी… हाय । मैं भोलीभाली तेरी बुरी नियत को न समझ पायी … और । अमर … अमर … मेरे अमर ।’
सुरसुन्दरी विचारों के वेग के सामने टिक न सकी। वो बेहोश होकर गिर गयी …। वहां उसे कौन हवा डालने वाला था ?