विमलयश के दिमाग के दरिये में एक के बाद एक सवालो की तरंगें उठने लगी ।
‘उन्हें प्रभावित करने के लिए मुझे कोई नाटक तो करना ही होगा ! ….. इस वेश
में, मै नाटक भी अच्छा कर पाऊँगा…..! और फिर अब तो मैं राजा भी हूँ इसलिए
उन्हें प्रभावित करने का रास्ता सरल हो जाएगा !
मै इस वेश में ही उनसे वचन लूँगी…. उन्हें वचनबद्ध कर लूँगी कि ‘तुम्हे
तुम्हारी पत्नी तो वापस मिलेगी पर बाद में उसकी बात भी माननी होगी ! ‘ ऐसा
कुछ कबूल पहले ही करवा लूंगी ।
‘तू कबूल तो करा लेगी….. परन्तु उन दोनों के खुद के दिल यदि नही मिले तो ?
शादी तो कर लेंगे तेरे कहने से या तेरे उपकृत होकर, पर यदि उनका मन मिल नही
पाया…. उनका ह्रदय एक दूजे में खिल नही पाया तो ? बेचारी गुणमंजरी दुःखी दु
खी हो जायेगी ना ? पत्नी को यदि पति का प्यार न मिले तो…? उसका शादी करने
का माईना क्या ? उसके जीवन में फिर बचे भी क्या ? और इस तरह एक स्त्री को
जिन्दगी के साथ खेल करना…. ! ! ‘
विमलयश अस्वस्थ हो गया। वह खड़ा हुआ। महल के झरोखे में जाकर खड़ा रहा।
‘अमरकुमार के साथ गुणमंजरी का जीवन सुखमय होना चाहिए…. मेरे स्वार्थ की
खातिर गुणमंजरी की जिंदगी से खिलवाड़ नही किया जा सकता !’ उसका भीतरी मन खोल
उठा ।
‘पर मै इसका अंदाजा लगाऊं भी कैसे ? निर्णय तो कैसे करूँ ? गुणमंजरी वैसे तो
पुण्यशाली कन्या है, पर फिर भी कोई पापकर्म आनेवाला हो और उसमें मै यदि
निमित्त बन जाऊं तो? मैं स्वयं दुःख सहन कर लूं , परंतु उस कोमलांगी का दुःख
मेरे से नही सहा जायेगा। हालांकि मै उसे मेरे पास ही रखूँगी… मेरी तरफ से
उसे भरपूर प्यार मिलेगा….. मै उसे ज़िगर के टुकड़े की भांति रखूँगी….!
‘फिर भी मुझे नि:शक हो जाना चाहिये…। जब तक मै निशचित नही हो जाऊं तब तक
निशचित कैसे रहूँगी ?
उन दोनों का जीवन सुखमय…. संवादिता सर सभर बनने का, बने रहने का स्पष्ट
निर्देश मुझे मिलना चाहिये ।’ और यकायक उसके दिल मे विचार कौं धा : मै
शासनदेवी से ही पूछ लुं तो ? हा…. हा, मेरी वह दिव्यमाता जरूर मुझे कुछ न
कुछ अंदेशा दे देगी….! भावि का भेद अवश्य बता देगी…!
विमलयश का दिल हल्का सा हो गया ।
आगे अगली पोस्ट मे…