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चोर, जो था मन का मोर – भाग 6

अमरकुमार मौन रहा कुछ पल, कुछ सोचकर वह बोला :

‘दूसरे आदमी को शब्दों से ही भरोसा दिया जा सकता है महाराजा  ! ह्रदय को तो बताया भी कैसे जाये ? परन्तु महाराजा, आप मेरी जिन्दगी की निजी बातो में इतनी रुचि बता रहे हो, वही मेरे लिए तो बड़ी बात है । मेरे पापों का फल तो मुझे यही पर मिल जायेगा…. अब तो मुझे उसका दुःख भी नही होगा !’

‘अमरकुमार, मै तुम्हारी निजी जिन्दगी में इसलिए इतनी रुचि बता रहा हूं…. चूंकि तुम्हारी पत्नी मेरे पास है… मेरी शरण में है !’

अमरकुमार की आंखें चौड़ी हो गयी । वह खड़ा हो गया… विमलयश के दो कंधो को पकड़ लिये और बोला :

महाराजा, कहाँ है मेरी पत्नी….? कही आप मेरे जले घाव पर नमक तो नही छिड़क रहे हो ना  ?  महाराजा बताइए…. मुझे कहिए….मेरे पर कृपा करो मेरे  महाराजा….दया करो….’

अमरकुमार फफक फफक कर रो पड़ा । विमलयश ने कहा  :

‘कुमार, तुम यही पर बैठो । मै तुम्हारी पत्नी को कुछ देर में तुम्हारे पास भेज रहा हूँ…. परन्तु अब मै तुमसे नही मिलूँगा  ।’

विमलयश शयनखंड के समीप के कमरे में गया । पद्मासनस्थ बैठकर ‘रूपपरावर्तिनी’ विद्या का स्मरण किया। और वह सुरसुन्दरी बन गया !

मंजूषा में से सुन्दर वस्त्र-अलंकार निकाले । सोलह श्रृंगार सजाये…., बैठकर श्री नवकार मंत्र का जाप किया।  इसका दिल आल्हाद की अनुभूति से भर आया। और उसने जहां पर अमरकुमार बैठा हुआ था, उस कमरे में प्रवेश किया ।

फटी फटी आंखों से…. फड़कते हुए दिल से अमरकुमार ने सूरसुन्दरी को देखा । दोनों के नैन मिले। अमरकुमार दरवाजे की ओर दौड़ा… और दो हाथ जोड़कर सुरसुन्दरी के चरणों मे झुकने को जाता है… इतने में तो सुरसुन्दरी ने  उसके दोनों हाथ पकड़ लिए… उसे झुकने नही दिया…अमरकुमार की आँखों में से आँसुओ के बादल बरसने लगे । दूर कही पर रात की खामोश हवा को थपथपाती हुई चौकीदार की ‘सब सलामत’  की ध्वनि  कौंधी…..।

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