यज्ञदत्त ने कहा : ‘भाईयों, आप या महाजन, महाराजा के पास मत जाइये,मैं और अग्नि की माँ-हम दोनों जाएँगे। चाहे तो राजकुमार हमारे गले पर तलवार का वार कर दे । वैसे भी, जीने में रखा क्या है ? बेटे का दुःख अब देखा नहीं जाता। हमारे लिए तो जिन्दगी और मौत दोनों ही एक से हैं। हम जाएँगे महाराजा के पास, पुत्र – रक्षा का वचन मांगेंगे। यदि महाराजा वचन देंगे… तब तो ठीक है… वर्ना….’ यज्ञदत्त रो पड़े । सोमदेवा भी फफकने लगी । वह उठकर घर के भीतर कमरे में चली गई । वहां पर उपस्थित सभी की आंखें गीली हो गई ।
दूर दूर के राजमार्ग पर से ढोल की आवाज आ रही थी । छोटे छोटे बच्चों की चीख – चिल्लाहट सुनाई दे रही थी । यज्ञदत्त व्याकुल हो उठे।
‘बेचारा अग्नि …. कैसे पाप लेकर पैदा हुआ है ? कितनी घोर ताड़ना – कदर्थना हो रही है उसकी ? कितना संत्रास गुजर रहा है उस पर ?’ जमीन पर द्रष्टि स्थिर करके यज्ञदत्त स्वगत बोल रहे थे : ‘महाराजा पूर्णचन्द्र गुणवान है… करुणावान है… परंतु पुत्रस्नेह सब से बलवान होता है। वे कुमार को रोकते भी कहां हैं ? कुमार को दुःख हो वैसा कुछ कह भी नहीं सकते। अग्नि के दुःख का विचार उन्हें भला क्यों आएगा ? क्या करुं ? सत्ता के आगे समझदारी किस काम की ? व्यर्थ है सब ।’
एक वुद्ध पुरुष जो कि यज्ञदत्त के समीप ही बैठे थे… उन्होंने यज्ञदत्त की पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा :
‘पुरोहितजी , तुम विषाद मत करो… तुम तो ज्ञानी हो… समझदार हो । ‘ईश्वर ने चाहा सो ही होगा ।’ यों सोचकर शांत हो जाओ । हम मुहल्ले के चार-पाँच आग्रणी मिलकर नगर के महाराजा से मिलेंगे और इस बारे में विचार विमर्श करेंगे…। फिर बाद में तुमसे मिलेंगे ।’
वुद्ध पुरुष खड़े हुए । सभी युवान लोग वहीँ बैठे रहे।
उस प्रौढ़ आदमी ने यज्ञदत्त से कहा : ‘पिरोहितजी, तुमने सबेरे से कुछ भी खाया पिया नहीं है… इसलिए अब कुछ खा लो , तुम दोनों मेरे घर पर चलो ।’
आंसू भरी हुई आंखों से पुरोहित ने उस प्रौढ़ व्यक्त्ति के सामने देखा और कहा :
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