‘महानुभाव , बस , बहुत हो चुका । अब रहने दो , उस बच्चे पर दया करो… उसे मत सताओ… उसे उत्पीड़ित मत करो ।’ यज्ञदत्त ने नम्र शब्दों में बिनती की।
‘यह सब भाषण महाराजकुमार के सामने देना , पुरोहित । मुझे तो अग्निशर्मा चाहिए । कहां है वह खिलौना ? चल , जल्दी मुझे सौंप दे उसे ।’
‘भाई , क्या बिगाड़ा है उस बच्चे ने तुम्हारा ? रोजाना क्यों उसका मजाक बनाते हो ? उसे पीड़ा देते हो ? भगवान तुम्हें कभी माफ नहीं करेगा ।’
‘सुन , पुरोहित। मुझे तेरा भगवान नहीं चाहिए … तेरा भगवान मुझे माफ़ करे या नहीं करे… मुझे इसकी परवाह नहीं है… मुझे तो तू मेरा खिलौना दे दे…. वर्ना राजकुमार तुझे माफ़ नहीं करेंगे । बोल , कहां छुपाया है उसे ? इस कमरे में है ना ? खोल कमरा… बाहर निकाल उस छोकरे को ।’
पुरोहित यज्ञदत्त की आंखों से आंसू बहने लगे । कुष्णकांत के समक्ष उसकी प्रार्थना… उसकी बिनती… सब कुछ व्यर्थ था । कुष्णकांत ने यज्ञदत्त को चेतावनी देते हुए कहा :
‘पुरोहित , आज दिन तक मैंने तेरी मर्यादा रखी है… तुझे हाथ नहीं लगाया है… पर अब यदि तू नही मानता है तो मैं तेरी चोटी पकड़कर उठाकर तुझे घर के बाहर फिंकवा दूंगा… तेरी शिकायत कोई सुननेवाला नहीं है । समझा न ? चल… जल्दी से दरवाजा खोल ।’
कमरे में रही हुई सोमदेवा ने सोचा : ‘यह दुष्ट महाराजा पूर्णचंद्र के भाई का बेटा है… फिर राजकुमार का दोस्त भी है… इसलिए यह जो चाहे सो कर सकता है..। इनके विरुद्ध शिकायत सुननेवाला राजमहल में है भी कौन ? नाहक यह राक्षस पुरोहित पर हाथ उठाएगा… और आखिर मेरे पुत्र को ले तो जाएगा ही ।’
सोमदेवा ने दरवाजा खोल दिया । तरुण अग्निशर्मा कुष्णकांत को देखकर हवा में हिलते पते की भांति कांपने लगा…। उसकी गोल गोल आंखें चक्कर खाने लगी । वह सोमदेवा से लिपट गया… और जोर जोर से रोने लगा ।
कुष्णकांत ने एकाध पल की भी देरी किये बगैर अग्निशर्मा को पकड़ा , उठाया … कंधे पर डाला और घर से बहार निकल गया! मुहल्ले के बाहर उसका घोडा खड़ा था । अग्निशर्मा को घोड़े पर डालकर , खुद घोड़े पर बैठा और घोड़े को राजमहल की और दौड़ा दिया ।
सोमदेवा और यज्ञदत्त दोनों करुणस्वर में रुदन करने लगे । सोमदेवा ने यज्ञदत्त से कहा :
‘स्वामी , इसकी बजाए तो यमराज आकर पुत्र को उठा जाए तो अच्छा ।
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