अग्निशर्मा चिल्ला चिल्लाकर बोला। परंतु खेल तमाशा देखनेवालों को दया कहां थी ? लोग तालियां पीट पीट कर हंसने लगे । कुष्णकांत को गुस्सा आया। उसने अग्निशर्मा को कुँए के किनारे पर ही पटका…. अग्निशर्मा चीख उठा ।’
गुणसेन ने कहा : ‘इधर ला, इस पठ्ठे को मुझे दे, जरा मैं भी इसको मजा चखाऊं…।’
कुष्णकांत ने अग्निशर्मा को कुमार के हाथों में दिया…. कुमार ने उसे कुँए में उतारा । कुँए में पानी भरा हुआ था । कुमार ने अग्निशर्मा को पानी में डुबोया और उसे बाहर निकाला। अग्निशर्मा असह्म वेदना व पीड़ा से तड़पता है…. परंतु पीड़ा की और कौन देखनेवाला था ? शत्रुध्न ने रस्सी पकड़कर उसे कुँए में डाला एक-दो डुबकी खिलाई और बाहर निकाला ।
नरक के परमाधामी देव जिस प्रकार नरक के जीवों को यातना देते हैं… इस तरह ये चारों मित्र अग्निशर्मा को उत्पीड़ित कर के नाच रहे थे। झूम रहे थे। जोरों से हंस रहे थे।
चारों मित्रों ने अग्निशर्मा को जी भरकर डुबकियां खिलाई…। जहरीमल ने अग्निशर्मा के सिर पर… चेहरे पर हाथ सहला कर कहा…’क्यों बच्च….मजा आया न ? कितनी देर से स्नान का मजा ले रहा है तू ।’
‘अब मुझे स्नान नहीं करना है…। मुझे घर जाने दो ।’ यों बोलते हुए अग्निशर्मा ज्यों ही खड़ा होने जाता है… इतने में गुणसेन ने उसके सिर पर एक मुक्का लगया । चीखता हुआ अग्निशर्मा कुँए के किनारे पर ही लुढ़क गया ।
गुणसेन ने आज्ञा की : ‘चढ़ा दो इसको वापस गधे पर और सवारी ले लो नगर की ओर ।’
कुष्णकांत ने रोते-कलपते हुए अग्निशर्मा को गधे पर बिठाया…। गधा जोरों से उछला… पिछले पैरों से कुष्णकांत को जोर से लात मार दी गधे ने । कुष्णकांत के मुंह से चीख निकल गई । अग्निशर्मा ने तालियां पीटी और जोर से हंस दिया । कुष्णकांत ने अग्निशर्मा पर अपना गुस्सा उतारा ।
शत्रुध्न ने जोर जोर से ढोल बजाना चालू किया ।
सवारी नगर की और चली । गधा करीब करीब दौड़ता हुआ जा रहा था । सभी लोग उसके पीछे दौड़ने लगे । राजमहल से कुछ दूरी पर एक मैदान में पहुँचने के बाद… गुणसेन ने शत्रुध्न से कहा… ‘जा… इस गठरे को डाल आ उसके घर में ।’
शत्रुध्न ने अग्निशर्मा को दो हाथ से उठा कर कंधे पर डाला….और ब्राह्मण मुहल्ले में जाकर , यज्ञदत्त के घर में घुसा…..
‘पुरोहित, ले तेरा यह बेटा । आज का हमारा खेल पूरा हो गया ।’ यों कहकर खटिया पर अग्निशर्मा को फेंका और हंसता हंसता वह घर से बाहर निकल गया।
खटिया में गिरते ही अग्निशर्मा बेहोश हो गया । सोमदेवा और यज्ञदत्त खटिया के पास बैठ गये । रोते रोते अपने कलेजे के टुकड़े के शरीर को सहलाने लगे । आज कुछ मिनटों में ही उसकी बेहोशी दूर हो गई … परंतु उसका शरीर बुखार से तप रहा था । भयंकर ठंड से उसका शरीर कांप रहा था ।
‘मुझे कुछ ओढ़ा दो… मां । मुझे बहुत ठंड लग रही है… ओ… मां, मुझे बचाओ । ये राक्षस मुझे मार डालेंगे ।’
यज्ञदत्त ने अग्निशर्मा को चार रजाई ओढ़ाई…। घर में से औषध निकालकर उसके हाथ-पैरों में लगाई…। काली मिर्च-मसाले डालकर दूध को गरम किया और उसे पिलाया । कुछ देर बाद अग्निशर्मा को नींद आ गई। पर सारी रात, यज्ञदत्त और सोमदेवा कुछ भी खायेपिये वगैर बेटे की खटिया को पकड़े बैठे रहे ।
दुःख – संत्रास और विडंबना ने उसके मुँह को सी दिया था। सोमदेवा मन ही मन ईश्वर को उपालंभ देती रही… और यज्ञदत्त मन में ईश्वर का स्मरण करते रहे।