गुरुदेव और माँ का आशीर्वाद – श्रीपाल मयणासुंदरी दोनों तेजश्वी रूप मे अपने घर पहुंचे। दोनों ने माँ के चरण-स्पर्श किये, माँ ने दोनों को गले लगाते हुए करुणामयी आशीर्वाद दिया, जिनवाणी के मार्गदर्शन को शाश्वत बताते हुए.. तह दिल से बहू का आभार व्यक्त किया। बहू ने भी ख़ुशी के आंसुओं के साथ माताजी के दुबारा चरण स्पर्श किये l
कल्याणमित्रों का भी उद्धार – भवोंभव से जिनशासन की आराधना में रहे इस जोड़े ने अपने 700 कोढि साथियों को भी नवपद आराधना विधिवत करवाकर उनका भी रोग दूर कर निरोगी बना दिया… यह है… कल्याण मित्र का फर्ज और मित्रता का फल l
अशुभकर्म से बहन सुरसुन्दरी बनी नृत्यांगना।
वर्षो उपरांत एक दिन राजा प्रजापाल (मयणा के पिता) ने महाकाल राजा के स्वागत में कार्यक्रम रखा, उसमे श्रीपालराजा, मयणा को भी बुलाया गया, कार्यक्रम में नृत्य रखा गया और नृत्यांगनायें भी बुलाई गयी… नृत्य की शुरुआत हुई.. अशुभ कर्म करने और उनके उदय से उस नृत्यागनां की पहचान… मयणा की बहन सुरसुन्दरी के रूप में हुई। जब सभी को पता चला… सुरसुन्दरी बहन मयणा के पैरो में गिरकर बहुत रोई, एवं अपनी पूरी व्यथा बताई, किस तरह वह बिककर वैश्यालय पहुँच गयी। अकथनीय कष्टों को भुगता। मयणा उसे सांतवना देकर घर लेकर गयी, सुरसुन्दरी भी पश्याताप करते हुए स्वकर्म को स्वीकार कर जिन आराधना में लग गयी l
सीख – ज्ञानी बुजर्ग केवता, सीख देवता.. के हसता हसता कर्म बोदो ने रोता रोता पण ना छुटे.. समजो नही तो दोरा वेवणो पडसी।
किसी को भी परेशानी में या उसे दुखी देखकर उसका आनंद लेना, उपहास उड़ाना.. सबसे कठोर पापकर्म बंधन का रास्ता है…इससे बचिए।
राजा प्रजापाल को भी अपनी गलती का अहसास हुआ – उसने मयणा से कहा.. मैंने तुझे दुःखी करना चाहा.. तू सुखी बनी और सुरसुन्दरी को सुखी करना चाहा.. वह दुखी बनी l
सत्य : प्रजापाल ने नतमस्तक होते हुए, भूल को स्वीकार कर माना की में सर्वथा गलत था। यह असत्य है कि मै किसी को सुखी या दुःखी कर सकता हूँ। वास्तव में कर्म सत्ताधीश है, राजा महाराजा प्रजा सभी कर्माधिन है.. यह सत्य मैंने प्रत्यक्ष देखा है l
श्रीपाल का महाराजा के रूप में राज्यभिषेक हुआ – उधर प्रजापाल राजा ने भी मालव देश के राज सिंहासन पर श्रीपाल का राज्य अभिषेक किया और स्वयं वैराग्य ग्रहण कर आत्म साधना के मार्ग पर अग्रसर हो गये l श्रीपाल राजा ने सुरसुन्दरी के पति अरिदमन को बुलाकर हाथी, घोड़े, जवेरात आदि के साथ शंखपुर का राज्य भी देकर विदा किया l उस समय के करीब 700 राजाओं ने प्रणाम कर श्रीपाल की आज्ञा को स्वीकारा…
चारों ओर जिनधर्म जिनवाणी की जय जयकार होने लगी…
आदरणीय मित्रों : हम सभी ने इस कथा के माध्यम से स्व: कर्म के सिद्धांत को समझा, जो शाश्वत है, केवली भाषित है, समझना और उसे जीवन में अनुकरण करने की ओर अग्रसर होना होगा – तभी हमारा स्वध्याय सार्थक होगा, वरना सिर्फ टाइमपास बनकर रह जायेगा l
ज्ञानी कहते है, जिनवाणी को हरहमेश मनन करते रहना चाहिए… अर्थात REMIND, REFRESH करते रहना चाहिए.. जिससे हम जागृत बने रहें l
आगे अगली पोस्ट मे…