रत्नपूरी नाम का एक नगर था उसका राजा था दमितारी ।उसी नगर में यशोभद्र नाम के एक परमात्मा भक्त सेठ रहते थे ।हमेशा वे एकाग्र मन से श्री पंचपरमेष्ठि नमस्कार महामंत्र का स्मरण किया करते थे ।
यशोभद्र सेठ के राजा के साथ भी अच्छे संबध थे । सेठ का एकलौता लड़का था शिवकुमार तरुणावस्था से ही वो बुरे दोस्तों की सोबत में फस गया था ।आवारे लड़को के साथ घूमना- फिरना उसका रोज का काम बन गया ।युवानी में आते आते वह कुख्यात जुआरी हो गया ।शराब पिने लगा …मांसभक्षण से भी नही बच सका ,और भी कई तरह के पाप उसके जीवन में प्रविष्ट हो गये ।पिता यशोभद्र जो की धार्मिक प्रवृति के भले भोले व्यक्ति थे, वे अपने बेटे के इस दुराचरण से काफी व्यथित थे ।उन्होने कई बार शिवकुमार को समझने की कोशिश की थी, पर शिवकुमारPage3 को सुधार ने में वे नाकामयाब रहे ।सेठ स्वयं कर्म सिद्धान्त को जानने वाले थे। वे समझते थे …’बेचारे के कितने घोर पाप कर्म उदय में हे ? और फिर नये पाप बाधे ही जा रहा हे क्या हो सकता? हे कर्मपर्वश आत्मा की यही दुर्दर्शा होती हे ।’इस तरह वे अपने मन को ढाढस बंधा लेते थे ,और तो करते भी क्या ?उम्रलायक पुत्र को ज्यादा कहना भी उचित नहीं था।
यशोभद्र सेठ का स्वास्थ बिगड़ने लगा। अपने बेटे के भविष्य की चिंता से वे काफी चिंतित थे उन्हें लगा ‘शायद अब मेरी मोत मुझे बुलावा दे रही हे ।’एक दिन उन्होंने शिवकुमार को अपने पास बुलाया एकदम प्यार से उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहा:
‘ वत्स, अब में तो कुछ दिन का …शायद कुछ घंटो का मेहमान हु। मेरी मोत निकट हे ।आज तक मेने तुझे ज्यादा कुछ नहीं कहा…आज बस, अंतिम बार एक सलाह दे रहा हु… जब भी तु किसी आफत में फस जाये …कही बचने का कोई चारा न हो तब श्री नमस्कार महामंत्र का एकाग्र मन में स्मरण करना ।जरूर करना… मुझे इतना वचन दे।’
शिवकुमार ने वचन दिया ।यशोभद्र सेठ ने आँखे मूँद ली वे स्वंय श्री पंचपरमेष्टि भगवंतों के ध्यान में लीन हुए आत्मभाव में डूब सेठ की म्रत्यु हुई। वे मरकर देवलोक में देव हुए।
अब तो शिवकुमार को कोन रोकने टोकने वाला था? वह पिता की अपार संपति का दुरुप्रयोग करने लगा। दो चार बरस में तो उसने सारी संपति से हाथ धो लिये ।वह रास्ते का भटकता भिकारी हो गया।
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