सुरसुन्दरी एवं अमरकुमार , दोनों के लिये यह पहली पहली समुद्र की सैर थी। संस्कृत-प्राकुत काव्यों में उन्होंने समुद्र की दिलधड़क बातें पढ़ी थी। धर्मग्रन्थों में भी संसार को सागर की दी गयी उपमा से वे परिचित थे । ‘संसार एक अंनत-असीम सागर है,’ ऐसे शब्द भी उन्होंने जैनाचार्यो के मुँह से सुन रखे थे । ‘सागर के खारे पानी जैसे संसार के सुख है -‘ वह उपदेश भी उन्होंने सुना था ।
अतल सागर पर फैले अंनत जलराशि की छाती को चीरते हुए बारह जहाजों का काफिला चला जा रहा था । सिंहल-द्विप की ओर जहाज आगे बढ़ रहे थे । सूर्यस्त से पहले ही भोजन वगैरह से निपट कर , सांझ के सौन्दर्य को समुद्र पर बिखरा हुआ देखने के लिये दोनों डेक पर चले आये थे । दोनों के मन बिभोर थे । हदय एक दम खिले खिले थे ।
तीव्र इच्छा की संपूर्ति हो चुकी थी …. प्रिय स्वजन का सहवास था! भावों की अभिव्यक्ति करने के लिये वातावरण सानुकूल था और सामने अंनत सागर का उफनता उत्सग था।
‘सुन्दरी, क्यो चुप्पी साधे बैठी हो?’ टकटकी बांधे झितिज की ओर निहारती सुन्दरी के कानो पर अमर के शब्द टकराये। उसने अमर के सामने देखा । उसकी आँखें ने भरते स्नेहरस को पिया और बोली:
‘अत्यन्त आनंद कभी वाणी को मूक बना देता है….है न स्वमिन !’सुन्दरी ने अमर की हथेली को अपने कोमल हाथों में बांधते हुए कहा ।
‘मै तो ओर ही कल्पना में चला गया था….’
‘शायद तू घर की यादों में …. माँ -बापू की यादों में खो गयी होगी!’
‘एक प्रियजन से ज्यादा प्रिय स्वजन जब निकट हो तब वह प्रिय-जन याद नही आता!’
‘और एक नया आह्लादक व मनोहारी वातावरण मिलता है तब भी पहले की स्मृतिया पीछा नही करती।’
‘बिल्कुल सही बात है आपकी…वर्तमान की मधुर क्षणों में डूबा तल्लीन मन पुरानी यादों से दूर रहता ही है!’
,अब अपन अन्दर के कक्ष में चले….अंधेरे के साये उतरने लगे है। भीतर बैठ कर सागर की लहरों के नाद में डूबेंगे….चलो!’
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