तीसरे दिन की रात थी ।
महाराजा पूर्णचन्द्र रानिवास में गये ।
रानी कुमुदिनी ने मौनरूप से स्वागत किया ।
महाराजा सिंहासन पर बैठे । कुमुदिनी उनके चरणों के पास बैठी ।
कुछ क्षण विश्राम लेकर महाराजा ने कहा ‘:
‘देवी, मेरी इच्छा है कि इस महीने कुमार की शादी कर दें ।’ रानी ने राजा के सामने देखा ।
‘और फिर, अच्छे मुहूर्त में उसका राज्यभिषेक कर दें।
‘क्यो ? इतनी जल्दबाजी क्यों ?’
‘हमे हमारे संसार के इन अधूरे कर्तव्यों को पूरे करके, आत्मकल्याण के लिए पुरुषार्थ कर लेना चाहिए ।’रानी गहरे सोच में डूब गई ।
राजा ने कहा : ‘जो भी अच्छा लगता था, अब वह सब कुछ अच्छा नही लगता है ।
यह राज्य… यह वैभव… ये ऐन्द्रिक सुख… सब कुछ नीरस लगता है….। यह सब छोड़कर अरण्यवास स्वीकार करने की तीव्र इच्छा पैदा हो गई है। इसलिए अंगनपुर के महाराजा को संदेश भिजवा देता हूं । इस महीने में ही शुभ मुहूर्त मै शादी का कार्य निपटा दें ।’
‘एक- दो साल के बाद करे तो ? रानी ने पूछा।
‘विलंब क्यो करना ? मैं हो सके तो उतना जल्दी मुक्त हो जाना चाहता हूं। तुम बेटे की साथ रहना ।’
‘स्वमीन, वह कभी हो नही सकता ! जहाँ आप रहेंगे वहां मै रहूँगी….। जिस दिन आप इस महल का त्याग करेंगे उसी दिन मै भी आपके साथ ही निकल जाऊगी। तपोवन में हम साथ ही रहेंगे। मै तो आपकी छाया बनकर ही जिऊंगी !’
‘परंतु पुत्र के बगैर….
‘मन नही मानेगा, पर आपके बिना कुछ अच्छा नही लगेगा ।’
‘यह तो बंधन है ।’
‘धीरे धीरे यह बंधन भी टूट जाएगा ।’
‘राग के बंधन इतने जल्दी कहां टूटते है….देवी !’
‘आपके राग के बंधन तो कितने जल्दी टूट गये है !’
‘टूटे कहां है ? तोड़ने के लिए पुरुषार्थ करना है !’
‘राग-द्वेष के बंधन टूटे बगैर अरण्यवास किस तरह स्वीकारा जा सकता है ?’
‘अरण्यवास में वे बंधन जल्दी टूटते है !’
कुमुदिनी मौन रही ।
आगे अगली पोस्ट मे…