गुणसेन ने करुण रुदन करते हुए कहा : मेरे ये मित्र निर्दोष है…. मैने ही उन्हें गलत रास्ते पर चलने को मजबुर किया है । इसलिए इनकी सजा भी मुझे ही कि जाए । सख्त से सख्त सजा कीजिए मुझे, पिताजी !’
कोई कुछ बोलता नही है…। सभी की आंखे आंसू बहा रही थी । पिताजी… गुणसेन ने महाराजा के दोनों हाथ अपने हाथ मे पकड़ कर कहा : ‘मैने उस बेचारे ब्राह्मणपुत्र को जो दुःख दिया है, जो संत्रास दिया है, उस पर शिकारी कुत्ते को छोड़कर उसे जो घोर पीड़ा दी है…. उसकी सजा सूली पर चढ़ाने की ही सकती है। ऐसा दुष्कृत्य यदि और किसी ने किया होता तो आप सूली पर ही चढ़ाते न ? मुझे सूली पर चढ़ा दीजिए, पिताजी !’ गुणसेन बच्चे की भांति बिलख पड़ा । हाथ के दो पंजे में अपना मुँह छुपाकर वह बोला… मै अधम हूं…. मेरा मुंह किसी को बताने लायक नही हूं !’
शत्रुघ्न, कृष्णकांत और जहरीमल भी फुट-फूटकर रो रहे थे। वे तीनों गुणसेन से लिपट गये। ‘कुमार, सजा तुम्हे नहीं उठानी है…. सजा हम उठाएंगे ।’ उन्होंने महाराजा से कहा :
‘महाराजा, जो भी सजा करनी है, वह हमें कीजिए…. कुमार को नही !’
नगरशेष्ठी ने खड़े होकर, महाराजा से दो हाथ जोड़कर, नतमस्तक होकर प्रार्थना की। ‘ राजेश्वर, कुमार और उनके मित्रो को उनके किये हुए दुष्कृत्यों का घोर पश्चताप हुआ है। सच्चा पश्चताप व्यक्त किया है । इसलिए क्षमा देने की कृपा करें। कुमार तो भविष्य में हमारे राजा होनेवाले है, हमारे रक्षक होनेवाले है । हमारी उनसे विनती है कि…. वे प्रजा के दुःख दर्द को जाने और उन दुःखो को दूर करने के लिए प्रयत्न करें । हमारी आपसे करबद्ध प्रार्थना है की… आप अरण्यवास स्वीकार करने का विचार मत कीजिए । अभी सन्यास लेने की बहुत देर है। आप हमारे तारणहार है । हमारे परमप्रिय महाराजा है !’
जब कोई कुछ नही बोला… तब नगरशेष्ठी ने महाराजा के समीप आकर प्रार्थना की : ‘महाराजा, आप आवास में पधारिये… एवम स्वस्थ होइये !’रानी कुमुदिनी की ओर देखकर कहा : ‘महादेवी, आप भी महाराजा के साथ पधारिये, ताकि सभा का विसर्जन हो सके ।’
राजमहल में तीन दिन तक पूरी तरह खामोशी का साया छाया रहा । महाराजा राजसभा में नही जाते है । कुमार गुणसेन अपने कमरे से बाहर नहीं निकलता है । रानी कुमुदिनी भी उदास-उदास रहती है । गीत-गान बंद हो गये है । संगीत के सुर लुप्त हो गये है । हंसी-मजाक का सिलसिला समाप्त हो गया है ।
आगे अगली पोस्ट मे….