‘क्षमा कीजिये, महाराजा… सजा मत दीजिए….। बावरी सी हुई रानी कुमुदिनी सभाखण्ड में आई और महाराजा के चरणों में आई और महाराजा के चरणों में लेट गई ।
‘देवी, जैसे तुम्हे तुम्हारा पुत्र प्रिय है, वैसे अग्निशर्मा की मां को भी उसका पुत्र प्रिय होगा ना ? वह मां भी बरसों से रोती-कलपती होगी । तुमने कभी तुम्हारे लाडले को, उस माँ के पुत्र को पीड़ा नही देने की सलाह दी ? कल जब वह राजा बनेगा…. तब मेंरी प्रजा को वह क्या स्थिति करेगा ? इस बारे मे तुमने संजीदगी से सोचा है कभी ? पूछो तुम्हारे इस कोखजाए को की कहां पर छुपा कर रखा है….उस ब्राह्मणपुत्र को ? कल उस लड़के को कैसे उन्होंने जख्मी किया ? पूछो… उसे ! !
तुम्हारा बेटा यदि कुरूप होता….बदसूरत होता… और दूसरे लोग उसका उत्पीड़न करते तो तो तुम क्या करती ?
जो माता-पिता अपनी संतानों को इस तरह के कृत्य करने देते है… देखा-अनदेखा करते है, वे भी सजा के पात्र है। तुम्हें यदि देवी ! तुम्हारे बेटे को सजा नही होने देना है तो ठीक है…. उसकी बजाए सजा मै उठाऊंगा! मै राज्य का त्याग करके, संसार का त्याग करके अरण्यवास स्वीकार करूगा। मेरी शेष जिंदगी तपोवन में बिताऊंगा ।’
‘नही…. पिताजी नही ! मै सजा उठाने को तैयार हूं । मुझे पचास नही वरन पाँच सौ चाबुक मारने की सजा दे, मुझे मारते-मारते सारे नगर में घुमाइये । पर आप तपोवन में मत जाइये…. आप हमारा त्याग मत कीजिये….।’गुणसेन रो पड़ा… महाराजा के चरणों मे लोट पड़ा ।
‘मै प्रतिज्ञा करता हूं… आज के बाद कभी उस ब्राह्मणपुत्र का उत्पीड़न नही करूंगा । मै उसकी क्षमा मांगूगा । उसके माता-पिता से माफी मांगूगा । परंतु…. आप सच मानिए कि मैने या मेरे इन मित्रों ने उसका अपहरण नहीं किया है.…..। न हमने उसे छुपाया है । हमें इस बारे में कुछ भी मालूम नहीं है। और सेनापतिजी, आप पिताजी की आज्ञा का पालन कीजिए । सब से पहले मुझे चाबुक मारे जाए !’
राजा-रानी महाजन और वहां उपस्थित सभी रो पड़े ।
आगे अगली पोस्ट मे….