‘महाराजा, कुमार और उनके मित्रो ने अपनी आज्ञा के उल्लंघन किया है । कल उस ब्राह्मणपुत्र को उन्होंने बुरी तरह घायल कर के नगर के बाहर जीर्ण मंदिर के चबूतरे पर फेंक दिया था ।’
‘नगर श्रेष्ठि और महाजन, कल की घटना के बारे में मुझे कुछ भी पता नही है….। आप कहते है…. तो बात सत्य हो होगी ।’
‘और….रा त के समय उस ब्राह्मणपुत्र का अपहरण हुआ है । उसे कोई उठाकर ले गया है ।’.’और कौन उठा ले जाएगा ? दुष्ट गुणसेन के अलावा ऐसा घोर पाप करने की जुर्रत और कौन करेगा ? अभी इसी वक्त तुम सबके सामने मै कुमार को बुलाता हूं ।’ महाराजा पूर्णचन्द्र गुस्से से दनदना उठे थे ।
‘महामंत्रीजी और सेनापतिजी, आप भी अपने पुत्रररत्नो को बुला लीजिए, ताकि सभी का न्याय साथ साथ हो जाए ।’ नगरसेठ ने वहां पर बैठे हुए महामंत्री और सेनापति से कहा :
महाराजा ने कहा : साथ साथ कृष्णकांत को भी बुला लिया जाए ।
‘राजमहल के विशाल सभाग्रह में महाराजा पूर्णचन्द्र के सामने चारों मित्रो को हाजिर किये गये । चारों मित्र अपने मुँह जमीन की ओर झुका कर खड़े थे ।
‘बोलो, ब्राह्मणपुत्र अग्निशर्मा कहां है ?’
‘हमें पता नही है !’ गुणसेन ने कहा ।
‘ रोजाना तुम लोग ही उठा कर ले जाते हो न ?’
‘जी हां !’
‘तब फिर कल कौन उठा गया ?’
‘हम नही जानते है !’
‘तुम लोग सच बोलोगे ?’ किसी ने कुछ जवाब नही दिया ।
‘कल गुप्त रूप से क्या तुम लोग अग्निशर्मा को उठा ले गए थे ? और उसे जख्मी कर के नगर के बाहर जीर्ण के चबूतरे पर डालकर चले गये थे ?
शैतानो, दुःख देने का मजा तुमने बहुत लुटा है,आज दुःख सहने की सजा का आनंद भी अनुभव कर लो।
सेनापति, इस चारो दुष्टों को पचास-पचास चाबुक लगाये जाए…।
चारों को जख्मी कर राजमहल के बाहर खम्भो से बांध दिया जाए। यह मेरी आज्ञा है ।’
‘नही, नही, महाराजा…. इतनी कड़क सजा मत दीजिए….।’
नगरशेष्ठी और महाजन ने बिनती की ।
‘सजा इन्हें करनी ही होगी…। इसके अलावा ये शैतान अपनी करतूतों से बाज़ नही आएंगे। दुःख सहे बगैर औरो के दुःख की कल्पना ही नही आ सकती ! इन लोगो ने बरसों से उस ब्राह्मणपुत्र को दुःख दिया है, मै इन्हें एक ही दिन का दुःख देने की आज्ञा कर रहा हूं !’
आगे अगली पोस्ट मे….