हमेशा की भांति , सूर्योदय होने पर महातपस्वी अग्निशर्मा कुलपति की अनुज्ञा लेकर , पारणे के लिए राजमहल की ओर आने के लिए निकला ।
नीची निगाहे और आहिस्ता – आहिस्ता चलते हुए उसने नगर में प्रवेश किया । नगर के राजमार्ग पर शून्यता और उदासी का साया छाया हुआ था । उसे देखकर सिर झुकानेवाले , अहोभाव से अभिनंदन करनेवाले वसंतपुर के लोग , उसके सामने भी नहीं देख रहे थे । उसकी जैसे उपेक्षा हो रही हो , वैसा वातावरण उसे अनुभूत हुआ ।
‘आज इस नगर को हो क्या गया है ?’ अनेक तर्क – वितर्क करता हुआ गेरुए वस्त्र पहने अग्निशर्मा महल के द्वार पर पहुँच कर एक ओर खड़ा रहा गया ।
— किसीने उसे बुलाया नहीं,
— किसीने उसका अभिवादन नहीं किया ।
— कियी ने उसका स्वागत नहीं किया ।
क्योंकि सभी के मन – मस्तिष्क चिंता में डूबे हुए थे। सभी की आंखे राजमहल के झरोखे की ओर थी । सभी महाराजा की कुशलता के बारे में जानने के लिए बेचैन थे , बेक़रार थे । परंतु…. कुछ कुछ…. समय के बाद भी महल में से…
‘अभी महाराजा की शिरोवेदना कम नहीं हुई है ….।’
बस, यही समाचार सुनने को मिलते हैं ।
अग्निशर्मा भी यह समाचार सुनता है ।
–‘महाराजा को आधी रात से भयंकर सिरदर्द है ।’
— ‘वैधों के उपचार सतत चालु हैं …।’
— ‘तांत्रिक प्रयोग भी हो रहे हैं …।’
— ‘शांति-पुष्टि कार्य भी हो रहे हैं ।’
— ‘मांत्रिक प्रयोग भी चालु हैं ।’
— ‘महाराजा शिरोवेदना से अत्यंत व्यग्र हैं…, अस्वस्थ हैं ।’
अग्निशर्मा के कानों पर ऐसी ही बातें सुनाई दे रही हैं । वह सोचता है :
‘महाराजा असह्म वेदना से तड़प रहे हैं । ऐसी पीड़ा में मेरा पारणा उन्हें भला कैसे याद होगा ? नहीं हो सकता याद । और राजपरिवार भी चिंतामग्न – व्यथित और सेवा में व्यग्र हो , तब मेरी तरफ उनका ध्यान ना जाए… यह भी स्वाभाविक है । देखो न , कोई मुझे बुला भी तो नहीं रहा है । ‘ओफ्फोह , कैसी आकस्मिक मुश्किल आ टपकी ? अब मुझे यहां पर क्यों खड़े रहना चाहिए ? क्या पता , कब राजा की वेदना दूर होगी ? ठीक है….
अब तो मुझे आज ही से दूसरा मासक्षमण आरंभ कर देना चाहिए । यही उचित एवं मेरी प्रतिज्ञा के अनुरूप है ।’
अग्निशर्मा राजमहल से वापस लौटा । किसी ने उसे रोका नहीं कि टोका नहीं । न किसी ने उससे उसके आगमन का कारण पूछा । राजपरिवार में तो कोई उसे भली भांति जानता ही नहीं था , कि न ही किसी को उसकी प्रतिज्ञा के बारे में सही जानकारी थी ।
आगे अगली पोस्ट मे…