‘अब मुझ से यह वेदना सही नहीं जाती ।’ महाराजा ने धीमे स्वर में वसंतसेना से कहा । रानी ने वहां पर खड़े हुए चारों मंत्रियों से कहा :
‘महानुभाव , महाराजा की शिरोवेदना असह बनती जा रही है । कुछ उपाय कीजिए ।’ शोकग्रस्त बने हुए विचक्षण मंत्री तुरंत ही शयनखंड से बाहर निकले । यशोधन , ने कहा :
‘ऐसी वेदना का निवारण मंत्रों के द्वार भी हो सकता है ।’
‘इस नगर में ऐसे सिद्ध मांत्रिक है सही ?’
‘है…. मैं जानता भी हूं उन्हें ।’ मंत्री मित्रसेन ने कहा ।
‘तब तो तुम स्वयं जाकर आदर के साथ उस मांत्रिक को अभी इसी वक्त्त यहां पर ले आओ ।’
‘अभी लेकर आता हूं ।’ मित्रसेन महल के बाहर आकर अश्वारूढ़ होकर मांत्रिक के घर की ओल चल दिया ।
चौथे प्रहर का आरंभ हो चूका था । सिद्धमांत्रिक जाग्रत हो गया था । वह अपने प्रात:कालीन संध्या कर्म-उपासना में बैठने जा ही रहा था कि मित्रसेन ने उसके घर के द्वार खटखटाये । मित्रसेन ने मांत्रिक से सारी बात कही ।
सिद्धमांत्रिक ने कहा : ‘मैं मेरे अन्य दो-चार मांत्रिकों को साथ लेकर शीघ्र ही राजमहल में आ पहुँचता हूं।’
राजमहल में खामोश भागमभाग मची हुई थी । नगर में भी बात फैल गई थी ।
चौथे प्रहर में नगर पूरा जग उठा था । महाराजा की शिरोवेदना की बात ने सभी को बेचैन बना डाला था । नगर श्रेष्ठि अपने – अपने वाहन में बैठकर राजमहल पर आ गये थे ।
मांत्रिकों ने अग्निकुंड में मंत्रगर्भित आहुति देनी चालू कर दी थी । शांति कर्म के प्रयोग भी प्रारंभ कर दिये थे ।
परंतु महाराजा की शिरोवेदना बराबर बढ़ती ही जा रही थी ।
चौथा प्रहर पूरा हो गया था । प्रभात हो चूका था । राज्य के अधिकारियों की आवा-जाही भी बढ़ गई थी । राजमहल के प्रांगण में अनेक रथ और सैंकड़ों अश्व आकर खड़े रह गये थे ।
कुशल वेघ, सिद्ध मांत्रिक और प्रज्ञावंत तांत्रिकों कों के भरसक प्रयत्नों के बावजूद महाराजा गुणसेन की पीड़ा मिट नहीं रही थी , सिमट नहीं रही थी , फिर भी प्रयोग चालू थे । प्रयत्न बरकरार थे ।
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