मनुष्य चाहे जितनी इच्छाएं करे…. योजनाएं बनाये…. और अभिलाषाएं रखें , उसकी कई इच्छाएं निष्फल जाती हैं म। कई तरह की योजनाएं अधूरी रह जाती हैं, और अभिलाषाएं मन में ही रह जाती है।
तब मनुष्य निष्फलताओं से निराश हो जाता है । व्यथा एवं वेदना से घिर जाता है।
‘कल सबेरे… इस पश्चिम महाविदेह क्षेत्र के अद्वितीय तपस्वी अपने महल को पावन करेंगे। उन्हें मासक्षमण का पारणा करवा कर हम कृतपुण्य हो जाएंगे ।’ ऐसे मनोरथों में डूबे हुए राजा – रानी रात्रि के प्रथम प्रहर के अंत में निद्राधीन हुए ।
दूसरा प्रहर पूरा हुआ,
तीसरे प्रहर का प्रारंभ हुआ और राजा गुणसेन अचानक पलंग पर उठ बैठे। उनका सिंर दुःख रहा था। दो हाथ से उन्होंने सिर दबाया ।
शयनखंड में मंद-मंद रत्नदीपक जल रहे थे। पास के पलंग पर महारानी वसंतसेना निद्राधीन थी। महाराजा गुणसेन ने रानी को उठाने का विचार किया। रानी के सिर पर हाथ रखकर धीरे से कहा :
‘देवी…. उठिये ।’
रानी चोंकती हुई उठी। उसने महाराजा को पलंग पर बैठे हुए देखा ..। रानी ने पूछा : ‘नाथ , क्या आपको नींद नहीं आ रही है ?’
‘मैं अभी अभी जगा हूं… मेरा सिर बहुत दर्द कर रहा है। पहले कभी इतना भयंकर दर्द हुआ नहीं। इसलिए फिर हार कर तुम्हें उठाना पड़ा ।’
रानी पलंग पर से नीचे उतर कर राजा के पलंग के पास आई। राजा का सिर दबाने लगी… परंतु दर्द तो कम होने के बजाए बढ़ता ही जा रहा था। एकाध घटिका बीत गई ।
राजा ने कहा : ‘देवी , दर्द बहुत ही बढ़ रहा है …। प्रतिहारी से कहकर अभी ही राजवेग को बुलवा लो ।’
शयनखंड के द्वार पर दो सशस्त्र रक्षक पूरी मुस्तेदी के साथ खड़े थे । रानी ने द्वार पर दस्तक दी और दरवाजा खोला । दोनों प्रतिहारियों ने रानी को प्रणाम किया । रानी ने कहा :
‘प्रतिहारी , तुम इसी वक्त्त राजवेग के वहां जाकर सुचना दो की महाराजा को तीव्र शिरोवेदना हो रही है । इसलिए देरी किये बगैर अविलंब औषध बगैरह लेकर महल पर चले आएं । तुम तुम्हारे साथ ही उन्हें लेकर आओ ।’
‘जैसी आपकी आज्ञा, महादेवी ।’ हम शीध्र ही वेगराज को लेकर आते हैं ।’ दोनों प्रतिहारी गये ।
आगे अगली पोस्ट मे….