सुख में तो बरस भी दिन बनकर उड़ जाते है… जल कर उड़ते कपूर की भांति ! दिन जैसे पल दो पल का हवा का झोंका बनकर गुजर जाते है ! धर्म-अर्थ काम तीनों पुरुषार्थ का उचित पालन करता हुआ यह परिवार प्रसन्नता पवित्रता से छल छल होता जीवन जी रहा है । दान-शील और तप उनके जीवन के श्रंगार बन गये है….। प्रभुभक्ति और पंचपरमेष्ठी भगवंत उनकी सांसो के हर एक तार पर गीत बनकर ढल गये है ! आनंद की लहरों पर गुजरती जीवन न
नोका सुखद… वातावरण में चली जा रही है । बरसों गुजरते है ।
एक दिन वापस चंपानगरी में खुशियों का सागर उफनने लगा ।
गुणमंजरी गर्भवती बनी थी । सुरसुन्दरी ने गुणमंजरी को बेनातट नगर भेजने के लिये अमरकुमार से कहा । अमरकुमार ने हामी भी ली । श्रेष्ठि धनावह और राजा रिपुमर्दन भी गुणमंजरी को बेनातटनगर भेजने की तैयारी करने लगे । मृत्युंजय ने सुरसुन्दरी से कहा :
‘देवी, गुणमंजरी को लेकर मै जाऊंगा बेनातट नगर ! मैने महाराजा गुणमंजरी को वचन दिया हुआ है ।’
‘बहुत अच्छा मृत्युंजय, तू साथ रहेगा तो फिर हम पूरी तरह निश्चित रहेंगे ।’
‘मै गुणमंजरी को पहुँचाकर तुरंत लौट आऊँगा ।’
‘महाराजा गुणपाल का दिल प्रसन्न रहे….वैसे करना ।’
शुभ दिन और शुभ मुहूर्त में अनेक दास-दासियों के साथ गुणमंजरी को लेकर मृत्युंजय ने बेनातट की ओर प्रयाण किया ।
एक दिन सुरसुन्दरी अपने खंड में, संध्या के समय अकेली झरोखे में खड़ी सोच रही थी….विचारों की गहराईयों में वह डूबती चली । उसकी अंतरात्मा की शहनाइयां बजने लगी थी । जीवन के शाश्वत तत्वों का संगीत उभर आया था…!
‘यह जीवन बीत जायेगा…’ बाद में ? भवभ्रमण का न जाने कब अंत आयेगा ? जन्म और मृत्यु जाने कब पीछा छोड़ेंगे ? सुख-दुःख के इन्द्र न जाने कब शांत होंगे ?
‘मै रंगराग और भोगविलास में डूबी जा रही हूं…. इंद्रियों के प्रिय विषयो का आनंद मना रही हूं…. कितने चिकने कर्म बंध रहे होंगे ? ओह ! आत्मन, कब तू इन वैषयिक सुखों की चाहना में से वीरक़त बनेगी ?’ कब विरागी बनकर शांत… प्रशांत होकर…. आत्मध्यान में लीन-तलालोंन बनेंगी ?
‘जानती हूं… समझती हूं ये वैषयिक सुख जहर से है…. तालपुट जहर से कातिल है…. फिर भी न जाने क्यों ये सुख अच्छे लगते है ? परमात्मा से रोजाना प्रार्थना करती हूं….की ‘प्रभो मेरी वैषयिकशक्ति तोड़ो… नाथ ! मुझे भव वैराग्य दो… मेरे पर अनुग्रह करो…परमात्मन ! मै आपके चरणों में हूं….मै आपको समर्पित हूं…..।’
‘हां, मुझे परमात्मा से असीम प्रेम है…निर्ग्रन्थ साधु पुरुषों के प्रति मुझे श्रद्धा है….। सर्वज्ञभाषित धर्म मेरा प्राण है । मुझे व्रत तप अच्छे लगते है….। मेरी श्रद्धा क्या एक दिन फलीभूत नही होगी ?’ क्या मेरी आराधना फलवती नही बनेगी ?’
सुरसुन्दरी आत्ममंथन में लीन थी ।
अमरकुमार हौले से कदम रखता हुआ पीछे आ कर कभी का खड़ा रह गया था । वह धीरे से मृदु स्वर बोला :
आज किसी गम्भीर सोच में डूबी हुई हो, देवी ?’
सुरसुन्दरी ने निगाहे उठाकर अमरकुमार को देखा…. जैसे कि अभेदभाव से देखा…. वह देखती ही रही…. अपलक… अढ़लक…! ! !