अमर की बात जानकर धनवती अत्यन्त व्यथित हो उठी । सुरसुन्दरी ने भी अमर ही के साथ परदेश जाने की जिद्द पकड़ी थी इससे तो धनवती को वेदना दुगुनी हो चुकी थी । चूंकि उसने अमर पर तो ह्रदय का प्यार बरसाया ही था …. सुरसुन्दरी को भी उसने अपने स्नेह से सराबोर कर दिया था ।
सरल…. निश्छल और भोली सन्नारी थी धनवती । उसका मन कबूल नही कर पा रहा था … कि ‘क्यों अमर को परदेश जाना चाहिए ? ये करोडों की संपति आखीर है किसके लिये? मेरा एकलौता बेटा है अमर, फिर उसे क्यों धन कमाने के लिये दूर के प्रदेश में जाना चाहिए ?’
रो रो कर उसने आँखे सूजा दी थी । वह अपने शयनखंड में मानसिक व्यथा के परिताप में। सुलग रही थी । इतने में श्रेष्ठि धनावह ने शयनखंड में प्रवेश किया । धनवती चौकती हुई खड़ी हुई ….. मौन रहकर सेठ का स्वागत किया । सेठ पलंग पर बैठ। उसके चेहरे पर गम्भीरता थी …. आँखों में पीड़ा की पर्त दर पर्त जमी हुई थी ।
‘मैंने अमर को काफी समझाया …. पर वह समझ ही नहीं रहा है … मुझे लगता है अब यदि उसे ज्यादा आग्रह करेंगे तो वो दुःखो हो जायेगा।’
सेठ ने धनवती के सामने देखा …. धनवती की आँखे गीली हो आयी थी । सेठ ने कहा :
‘अब तुम दिल को कुछ मजबूत कर दो … भावनाओं को वश में किये बगैर और कोई चारा नहीं है … अमर तो जायेगा ही … साथ ही पुत्रवधु भी जायेगी ।’
‘पर , मैं उन दोनों के बिना जी कैसे सकुंगी … ? नहीं …. मैं नहीं जाने दूँगी … नहीं ।’
‘मैं जानता हूं … तुम्हारा पुत्र-प्रेम गहरा है … पुत्रवधु पर भी तुम्हें असीम प्यार है , फिर भी कहता हूं कि इस समय उस जिनवचन को बार बार याद करो : “एगोह नत्थि में कोई, नाहमननस्स कस्सई” ।’ मैं अकेला हूं…. मेरा कोई नहीं है , मैं किसी का नहीं हूं ….’ इस परम सत्य वचन को बार बार याद करो । दीनता को छोड़ दो … मैंने भी इसी जिनवचन का सहारा लिया एवं कुछ स्वस्थता पा ली । तुम जानते हो की इस दुःखमय संसार में जिनवचन ही सच्ची शरण दे सकता है …. । तुम देखो …. अपने पास करोडो की संपत्ति है न ? फिर भी यह संपति इस वक्त अपन को चैन की साँस लेने दे सकती है ? यह धन क्या सांत्वना दे सकता है ? इतना वैभव होने पर भी अपने आपको अपन कितना दुखी महसूस कर रहे है ? जिनवचन ही ऐसा एक सहारा है जिसका सुमिरन करते ही मन के दुःख टल जाते है । तन के दुःख में भी , शारीरिक पीड़ा के वक्त भी जिनवचन ही समता एवं समाधि दे सकते है ।’
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