राजा का दिल भर आया …। उनकी आंखो में आंसू उभरने लगे । गदगद स्वर में उन्होंने अग्निशर्मा को कहा :
‘भदंत, आपको घोर पीड़ा देनेवाला , आपका उत्पीड़न करनेवाला , और आपके ह्रदय को संतप्त करनेवाला वह पापी राजकुमार अ
-गुणसेन मैं स्वयं ही हूं ।’ राजाने तपस्वी के चरणों में अपना मस्तक रख दिया…। आंसुओं से तपस्वी के चरणों को अभिषेक कर दिया।
अग्निशर्मा ने राजा के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा :
‘महाराजा गुणसेन , मैं आपका स्वागत करता हूं । मैं तो भिक्षावुति से जीनेवाला था…। आपके निमित्त ही मुझे यह ऐसी तपविभूति प्राप्त हुई है। यह आप ही का उपकार है । महाराजा , आप गुणसेन ही हैं, क्यों अपने आपको ‘अगुणसेन’ मानते हो ? किशोर अवस्था और यौवन – अवस्था ही ऐसी है कि जिस अवस्था में गुणवान पुरुष भी कभी न करने का कार्य कर बैठते हैं …। आपका कुछ भी दोष नहीं है ।’
‘महात्मन, यही तो आपकी महानता है। यही आपकी क्षमा है, यही आपकी उदारता है। तपस्वी कभी भी अन्य को अप्रिय लगे वैसी बात करते नहीं हैं। वे हमेशा प्रिय ही बोलते हैं। आप चंद्र की भांति शीतल है। चन्द्र में से शीतलता ही बरसती है न ? अंगारे की बारिस कभी नहीं होती ।’
‘भदंत, अब यह बात नहीं करनी है । अब तो मुझे यह जानना है कि आपका पारणा किस दिन आ रहा है ?’
‘महाराजा, पाँच दिन के पश्चात महीने के उपवास का पारणा होगा ।’
‘भदंत, यदि आपको अन्य कुछ बाधा न हो तो पारणा मेरे घर पर करने की कुपा कीजिएगा । कुलपति से मैंने आपकी प्रतिज्ञा के बारे में पूरी जानकारी ले ली है , इसलिए अभी से उस दिन के पारणे के लिए मैं प्रार्थना करता हूं । आपको पारणा करवा कर मैं और मेरा परिवार सही अर्थ में धन्य हो उठेंगे । आनंद से हमारा दिल भर जाएगा ।’
‘महाराजा , अभी पारणे के बीच पाँच दिन है । वह दिन तो आने दीजिए । किसको पता है कि बीच के पाँच दिन में क्या कुछ होनेवाला है ।
आगे अगली पोस्ट मे…