ब्राह्मण पुत्र – अग्निशर्मा!
आज लाखों बरसों के बाद नये स्वरुप में मेरे सामने बैठे हैं । मैं इनका निकुष्ट अपराधी हूं ।’
शरम के मारे राजा गुणसेन का मुंह झुक गया । जमीन पर द्रष्टि स्थिर करके उन्होंने तपस्वी से पूछा :
‘भदंत , उस राजकुमार ने आपको , त्रैलोक्य में बंधुसमान धर्म के लिए कैसे प्रेरणा दी ?’
राजा यह सवाल पूछता है और तपस्वी अग्निशर्मा प्रत्युत्तर देता है… वहां तक अग्निशर्मा
– ‘यही वह राजा , मेरा कल्याणमित्र राजकुमार था,’ पहचान नही पाया है । ‘यही राजा मेरा घोर उपहास करनेवाला , मेरा भयंकर उत्पीड़न करनेवाला…. और मेरे पर शिकारी कुते को छोड़नेवाला… वही अधम राजकुमार है ,’ इस तरह नहीं पहचान पाया है ।
तपस्वी अग्निशर्मा ने राजा के प्रश्न का प्रत्युत्तर देते हुए कहा :
‘भाग्यशाली, जगत में प्ररेणा अनेक प्रकार की होती है । उसमें से कोई भी एक प्ररेणा मेरे वैराग्य में निमित्त बन गई ।’
अग्निशर्मा तापस था , संन्यासी था । उसके मुंह से किसी के दोष कैसे प्रगट होते ? गुणसेन ने अग्निशर्मा के सामने अहोभाव से देखा । वह सोचता है : ‘सचमुच यह महानुभाव है। वास्तव में साधु है। इसकी घोर कदर्थना करनेवाले…. इसका भयंकर उत्पीड़न करनेवाले उस कुमार को यह धर्म की प्ररेणा देनेवाला मान रहा है। कल्याणमित्र समझ रहा है । कितना निर्मल स्वभाव है इस महात्मा का ? पराभव को प्रेरणा मानने की कैसी उदात्त एवं उदार विचारधारा ? किसी के भी दोष की निंदा नहीं । किसी के भी दोषों को याद करके करकर्कश वाणी में दोषानुवाद करने की या ताना कसने की कोई बात नहीं ।
क्या करूं ? अभी तक इस महात्मा ने मुझे पहचाना नहीं है । ओह….मैंने पापी ने कितना घोर अकार्य किया था उस कुमार अवस्था की नादानियत में ? क्या मैं मेरी कलंकित असलियत को खुली कर दूं ? यह महात्मा है….मुझे पहचान लेने के बाद भी वह मेरा तिरस्कार तो नहीं करेंगे । और शायद करेंगे भी तो वह मैंने जो इनका तिरस्कार किया है …. उतना तो नहीं करेंगे । मैं तो बड़ा घोर अपराधी हूं ।’
राजा का दिल भर आया …। उनकी आंखो में आंसू उभरने लगे ।
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