‘मैं सोचता हूँ….उसे रानी बनाने के लिये l’
‘ओह ! इसमें इतना संकोच क्या ? राजाओं के अंतपुर मे तो अनेक रानियां होती है….l’
‘पर अभी….मैंने उससे पूछा नहीं है l’
‘वो क्यो मना करने लगेगी ? भला राजा की रानी होना किसे पसंद नहीं ?’
‘आज जाने दे….मैं कल उसे पूछ लूंगा l’
‘हां….आज तो वो अंदर से दरवाजा बंद कर के कमरे मे सो गयी है l’
‘अच्छा….तो फिर अभी मैं चलता हूं l’
राजा ने सुरसुंदरी के कमरे के बंद दरवाजे देखे….और वह चला गया l
मदनसेना का मन कुढने लगा : ‘क्या मैं इतनी पागल हूं….जो मेरे ही सर पर सौतन को बिठा लू’…? नहीं….कभी नहीं….l महाराजा उससे मिले इससे पहले मैं स्वयं उससे मिलूंगी l उसके मन की बात जान लूंगी l फिर आगे सोचूंगी l’
संध्याकालीन भोजन का समय हो चुका था l परिचारिका सुरसुंदरी के लिये भोजन की थाली लेकर आयी….उसने दरवाजा खटखटाया l सुरसुंदरी जग गई….उसने दरवाजा खोला l
‘मैंने आपके आराम मे खलल किया….माफ करें….भोजन का समय हो चुका था….अतः …’
‘कोई बात नहीं….मैंने पर्याप्त आराम कर लिया है….l’
सुरसुंदरी ने आराम से भोजन किया l उस ने परिचारिका से पूछा :
अरे, मैनें तेरा नाम तो पुछा भी नहीं । तूने बताया नहीं….। तू कितनी अच्छी परिचारिका है….मेरे जैसी अनजान के साथ भी सलीके से बोलती है….करती है…।
अपनी प्रशंसा सुनकर परिचारिका शरमा गई…वह बोली :
‘मेरा नाम रत्ना हैं।’
‘रत्ना, तेरी महारानी का क्या नाम है ?’
‘मैं खुद ही बता दूंगी वह नाम….सुरसुंदरी । मदनसेना को खंड में आती देख परिचारिका सकपका गई । मेरा नाम मदनसेना है….सुंदरी । चेहरे पर स्मित को छिड़कती हुई मदनसेना पलंग पर बैठी । सुरसुंदरी मदनसेना के सामने देख रही थी । रत्ना भोजन की खाली थाली लेकर कमरे मे से बाहर निकल गई थी ।
‘आपका दर्शन करके मुझे आनंद हुआ ।’ सुरसुंदरी ने बात की शुरुआत की ।
‘अतिथि की कुशलता पूछने के लिये तो अाना ही चाहिए न ? चाहे तू निराधार अबला हो….पर आज तो राजमहल की मेहमान है ।’
‘यह तो आपकी उदार दृष्टि हैं….वरना, निराधार नारी को आश्रय दे भी कौन, महारानी ?’
‘तेरी बातें….तेरे बोलने का ढंग….इससे मुझे लगता है कि तू किसी उँचे घराने की स्त्री है । मेरा अनुमान सही है या गलत ? सच कहना तू ।’
आगे अगली पोस्ट मे …