शत्रुघ्न दौड़ता हुआ रथ के पास पहुँच गया, गुणसेन ने रथ को भगाया । चारों मित्र अपने मूल स्वरूप में खिल उठे थे ।
जंगल मे स्थित महल द्वार पर रथ आकर खड़ा रहा ।
कुमार रथ में से नीचे उतरा और चाबी से ताला खोलकर दरवाजा खोल दिया। कृष्णकांत ने रथ को महल के विशाल मैदान में ले लिया। दरवाजा बंद करके भीतर से कुंडी लगा दी।
रथ को मैदान में रख दिया । घोड़ो को मैदान में खुले छोड़ दिये । चारों मित्र, अग्निशर्मा को लेकर महल के विशाल खंड में आये ।
गुणसेन ने कहा : ‘सब से पहले हम दुग्धपान करे… और नाश्ते को न्याय दे। शत्रुघ्न, जा औऱ रथ मे से दूध और नाश्ते के डिब्बा ले आ ।’
चारो मित्रो ने दूध पिया और नाश्ता किया। अग्निशर्मा को भी दूध दिया और मिठाई भी दी। पर अग्निशर्मा ने न तो दूध पिया…. नही मिठाई खाई…। आज वह पहली बार बोला :
‘तुम मुझे रोजाना यमराज के बराबर यातना देते हो…। बरसों से मै यह दुःख सहता हू । आज जंगल मे मेरे शरीर के टुकड़े कर -कर के जानवरों को खिला दो…’
चारों मित्र हंस पड़े। गुणसेन ने कहा : ‘तुझे यदि मार डाले… फिर हमारे साथ खेलेगा कौन ? हम मजा किसका लूटेंगे ?’
जहरीमल ने जहरीली आवाज में कहा : ‘हम तो तुझे खिला-पिला कर मोटा-ताजा रखेंगे… ताकि खेलने में तू थके नही ! थोड़ा कुछ खा ले ! आज तो तुझे शिकारी कुत्तो के साथ लड़ाई करनी है…। खायेगा तो लड़ने की ताकत आयेगी…।’
‘तब तो बहुत अच्छा ! जिन्दगी का अंत आ जाए यह तो मांग ही रहा हूं ! कुत्ता ही क्यो ? भूखे शेर को ही छोड़ दो ना मेरे पर ?’
‘अरे ऐसा थोड़े ही होगा । हम किसी कीमत पर यो तुझे मरने नही देंगे । तू तो हमारा प्रिय खिलौना है ! तेरे से तो हम बरसों से यू आनंद लूट रहे है ! मजा ले रहे है !’
‘मुझे खाना-पीना नही है । कहाँ है तुम्हारा शिकारी कुत्ता ? छोड़ दो उसे मेरे पर । मै जा रहा हूं मैदान मैं ! तुम कुत्ते को लेकर चले आओ !’
अग्निशर्मा मैदान में गया ।
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