सोमदेवा खामोश हो गई । उसने अग्निशर्मा को बिछौने पर बिठाया । और उसे भोजन करवाया । भोजन करके अग्निशर्मा ने कहा : ‘मां, तू और पिताजी इस तरह दुःखी मत हो। मैने बाँधे हुए पापकर्मो की सजा मुझे भुगतनी होगी। भुगते बिना उन कर्मो का नाश नही होगा । मैने गत जन्म में धर्म नही किया है…. पाप ही पाप किया है । इसलिए फिर मुझे सुख कहाँ से मिलेगा ?
पिताजी, आप मुझे धर्मशास्त्र की बातें सुनाइये–समझाइये । धर्मशास्त्र की बातें सुनकर मुझे शांति मिलेगी। समता मिलेगी। दिल को हिम्मत मिलेगी। अग्निशर्मा की समझदारी भरी बातें सुनकर रो पड़े ।
‘वत्स, तेरी बात सच है। घोर दुःख में भी शांति और समता बनाए रखने का यही एक सही उपाय है। फिर भी बेटे, तेरा दुःख हमारा दुःख बन गया है। तेरी पीड़ा हमारी अपनी पीड़ा बन गई है। तेरा दुःख दूर करने की चिंता हमें हमेशा सताती रहती है ।’
‘मत करो चिंता, पिताजी ।’
‘वत्स, चिंता हम करते नही है… हो जाती है चिंता ! यह ह्रदय है ही ऐसा ! मेरे से ज्यादा चिंता तो तेरी मां को बनी रहती है !’
‘मै चिंता करती नही हूं…। चिंता हो ही जाती है ! बेटा दुःख की आग में झुलसता हो… फिर चिंता नहीं होगी क्या ?’ सोमदेवा की आंखों में बरसाती नदी की तरह आंसू बहते रहे ।
कुछ भी हो, आज यक्षदत्त और सोमदेवा को नींद आ गई । अग्निशर्मा को कुछ कुछ पीड़ा हो रही थी । नींद आ नही रही थी । उसने मन ही मन ‘गृहत्याग’का संकल्प कर लिया था। ‘मै यह घर और नगर छोड़कर दूर दूर चला जाउंगा… किसी अनजान इलाके में चला जाउंगा…. यही मेरे इन दुःखो से छूटने के एकमात्र यही उपाय है ।’
वह खड़ा हुआ ।
गहरी नींद में सोये माता-पिता को भावपूर्वक प्रणाम किये । जरा भी आवाज न हो, उस ढंग से दरवाजे की कुंडी खोलकर वह बाहर निकल गया । सम्हाल कर धीरे से दरवाजा बंद किया और जैसे की आधी रात के काली स्याह अंधेरे में वह गायब हो गया ।
ब्रह्मण मोहल्लेके बीचोबीच खड़े पीपल के पेड़ पर बैठे हुए उल्लू ने घू…. घू….घू की आवाज की और खोमोश वातावरण एक पहल के लिए दहल उठा ।