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भीतर का श्रंगार – भाग 1

सच्चा प्रेम, दिये बगैर नही रहता ! वास्तविक आंतरिक स्नेह, प्रदान किये
बगैर नही रहता ! खुद के पास जो अच्छा हो..श्रेष्ठ हो सुंदर हो उसका अपना करेगा
ही प्रेमपात्र के लिए।
विद्याधर राजा की चारो रानिया सुरसुन्दरी के ज्ञान एवं गुणों पर मुग्ध हो
गयी थी। सुरसुन्दरी का व्यक्तित्व धीरे धीरे समग्र राजमहल पर छाने लगा था।
इतना ही नही नगर में भी सुरसुन्दरी के गुणों के गीत गाये जाने लगे थे। उसके
आने से मानो सुरसँगीतपुर नगर धन्य हो उठा था।
एक दिन की बात है।
सुरसुन्दरी श्री नवकार मंत्र का जाप करके उठी ही थीं कि चारो रानियां उसके पास
आ पहुंची। सुरसुन्दरी ने प्रेम से सबका स्वागत किया। एक रानी ने कहा-
‘दीदी…’ ‘वाह क्या तो सम्बोधन खोज निकाला है।’ सुरसुन्दरी खिलखिला उठी।
‘क्यो ?… तुम तो हम सब की बडी बहन सी हो ना ?’
‘अच्छा बाबा… कहो जो कुछ भी कहना हो!’
‘दीदी… आज तुम्हारे चेहरे पर कितनी प्रशन्नता छलक रही है… क्या बात है ?
बहुत खुश नजर आ रही हो।’
‘सही बात है तुम्हारी… आज में सचमुच बहुत खुश हूं… आज मेरा मन पँचपरमेष्टि
भगवंतों के ध्यान में आंनद से भव उठा! मन डूब गया था! भगवद ध्यान में ! जब भी
मेरा मन परमेष्टि के ध्यान में डूब जाता हैं मेरा सारा अस्तित्व धन्य हो जाता
है!
‘दीदी… हम को भी ध्यान करना सिखाओ ना ?’
‘जरूर … तुम्हे ध्यान सिखाने में मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी। ‘
‘कब सीखाओगी ?’
‘अभी… आज ही …’
‘नही…नही….
अभी तो हम आपको कुछ सिखाने के लिए आई है और चारों रानिया एक दूसरे की तरफ
देखती हुई हंस दी ! सुरसुन्दरी को कुछ समझ मे नही आया…!! ! वो सभी रानियों
के मुंह तकने लगी।
बडी रानी ने सुन्दरी का हाथ कसते हुए कहा :
प्यारी प्यारी दीदी…. आज तुम्हे हमारी एक बात माननी होगी।
ओहो… पर तुम्हारी कोनसी बात मेने नही मानी?
अरे … इसलिए तो हम तुम्हारे प्रेम में डूब गयी हैं …

आगे अगली पोस्ट मे…

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