पाठशाला मे किसी भी छात्र -छात्रा ने दुपहर का नाश्ता नहीं किया। सभी के नाश्ते के डिब्बे बंद ही रहे। सुरसुन्दरी तो जैसे पुरी पाठशाला में अकेली हो गई थी।कोई भी छात्र या छात्रा उसके साथ बात तक नहीं कर रहे थे। चुकी सबको मालूम था की अमरकुमार क्यों उदास है। सुरसुन्दरी का मन व्यथा से अत्यन्त व्याकुल हो उठा। अमरकुमार ने आज भी पाठशाला जल्दी बंद कर दी। सभी छात्र- छात्रा चले गये पर सुरसुन्दरी अपनी जगह पर बेठी रही। अमरकुमार पाठशाला के दरवाजे पर खड़ा रहा था। उसका मुह पाठशाला के बहारी मैदान की ओर था। सुरसुन्दरी चुपचाप अमर के निकट आकर खड़ी रह गईं ।
‘अमर’… सुरसुन्दरी ने कापते स्वर से अमर को आवाज दी पर अमर ने मुँह नहीं घुमाया।
‘अमर’ मै मेरी गल्ती की क्षमा मांगती हुँ…. सुरसुन्दरी अमरकुमार के सामने जाकर खड़ी रही।उसकी आँखो मे से आँसू बहने लगे थे ।
‘अमर’, मेरे अमर …. क्या तू मुझे माफ़ नहीं करेगा?
तू मेरे साथ नहीं बोलेगा? मेरे सामने भी नहीं देखेगा?… अमर….
अमरकुमार की आँखे गीली हो गई। सुन्दरी के साथ नहीं बोलने का… उसके सामने नहीं देखने का, उसका संकल्प अब बरफ बनकर पिघल रहा था। उसने धीरे से आँखें उठायी…. सुरसुन्दरी के सामने देखा और वापस पलके गिरा दी।
‘अमर , मैंने तेरा अपमान किया है। तु मुझे जी में आये वह सजा कर । मैंने तुजे कटुवचन कहे है, तु मुझे शिक्षा कर ….. अमर,… तु मेरे पर गुस्सा कर….. तु मुझे डांट-फटकार सुना ….. अब मैं कभी भी ऐसी गलती नहीं दोहराउंगी….. अमर….’
अमर ने अपने वस्त्र से सुरसुन्दरी की आँखों के आंसु पोंछे । सुरसन्दरी का चेहरा चमक उठा । उसकी आँखों में प्रसन्नता उभरी । उसने अमर का हाथ पकड़ लिया।
‘अमर, तु मुझे छोड़ तो नहीं देगा न? मेरे सामने देखेगा न? मेरे साथ बोलेगा न? तु एक बार हसंकर मुझे जवाब दे…..’
‘सुर …. अपन कल की बातें भूल जायें।’
‘हाँ… अमर ….. भूल जाएं। अपनी दोस्ती तो सदा की है। है न अमर?’
समय हो चूका था। दोनों का विषाद घुल गया था।
पर क्या इन्सान किसी दुर्घटना को भूला सकता है??…
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