दुसरी दिन जब सुरसुन्दरी पाठशाला मे आयी तब अभ्यास शुरू हो चुका था। पंडितजी सुबुद्धि अध्ययन करवा रहे थे। सुरसुन्दरी ने पंडितजी को नमन किया और अपनी जगह पर जा बैठी। उसने अमर की ओर निगाहे की और उसके दाल मे वेदना की कसक उठी।
अमर का चेहरा मुरझाया हुआ था। उसकी आँखे जैसे बहुत रोयी हो वैसी लग रही थी। उदासीनता छायी हुई थी उसके चेहरे पर। अमर की नजर पंडित जी की तरफ ही थी। सुरसुन्दरी की आँखे भर आयी। पर तुरन्त उसने वस्त्र से आँखे पोछकर पंडित जी की और ध्यान दिया पर उसका मन और उसके नयन बार बार अमर की ओर घूम रहे थे। अमर की निगाहे स्थिर थी पंडित जी की तरफ। हलाकि उसके दिल में तो सुरसुन्दरी छायी हुई थी। पर उसका संकल्प था सुरसुन्दरी की ओर नहीं देखने का। वह बराबर अपनी आँखो को रोक रहा था।
मध्याहकालीन अवकाश हुआ। पंडित जी अमरकुमार को पाठशाला सोपकर चले गये अपने घर। कुछ दिनों से पंडित जी का स्वास्थ ठीक नहीं था।
अमरकुमार मोन था। हमेशा बतियाते रहता अमर आज खामोश था ।उसकी चुप्पी ने सभी छात्र छत्राओ को व्यथित कर रखा था। सुरसुन्दरी भी अपने स्थान पर मोन बेठी हुई थी। उसे कुछ सुज नहीं रहा था की वह अब अमर कुमार को किस तरह बुलाये। शायद वह उसे बुलाये और अमर कुमार न बोले तो शायद वह गुस्सा कर बेठे तो कही स्वयं अपनी अपमान सहन न कर पाई तो अपमान सहन करने की मानसिक तैयारी के साथ आई हुई सुरसुन्दरी का विश्वास अपने आप पर का भरोसा हिल गया ।अमर अन्य छात्रो को स्वाध्याय करवा रहा था। हलाकि स्वाध्याय करवाने में न तो अमर को मजा आ रहा था नहीं और छात्रो को मजा आ रहा था। अमर कुमार को प्रसन्न करने के लिए उसे खुश करने के लिए छात्र लोग प्रयत्न करते रहे पर अमर को गमगिनी दूर नहीं हुई।
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